Thursday 9 October 2008

भागवत से ...

आज हम चतुश्लोकी भागवत को जानेंगे । कहा गया है कि भागवत के यह चार श्लोक पूरे भागवत को पढ़ने का फल देता है ,सारे काम, सारी इच्छाएं इसे पढ़ने से पूरी होती है । यह चार श्लोक भगवान् ने कहे हैं ,यह भागवत का बीज है। यह चार श्लोक ब्रम्हा ने नारद मुनि को
दिया ,नारद ने व्यास को, व्यास ने शुकदेव जी को, शुकदेव ने महाराज परीक्षित को और सूत जी को दिया फिर ऋषियों के द्बारा आज यह अमृत हम तक आया । भगवान् ने स्वयं कहा है ... भगवन उ वाच -अहमे वास में वाग्रे नान्यद यतसद्सत्परम ।
पश्चाद हं यदे तच्च यो वशिश्येतसो स्म्यहम ।
ऋइतेर्थ यत प्रतियेत न प्रतियेत चात्मनि ।
ताद्विदात्मानोमाया यथाभासो यथा तमः ।
यथा महान्ति भूतानिभुतेशुच्चाव चेश्वनु ।
प्रविष्त्तान्य प्रविश्त्तानी तथा तेषु न तेश्वहम ।
एतावदेव जिग्यासं तत्व जिज्ञासु नात्मन :।
अन्व्याब्यातिरेका भ्याम यत स्यात सर्वत्र सर्वदा ।
सृष्टि के पूर्व में मैं था, न स्थूल था, न सूक्ष्म, न ज्ञान था न अज्ञान- जहाँ कुछ नही वहाँ मैं ही मैं हूँ इस सृष्टि के रूप में जो कुछ दिख रहा है वो भी मैं हूँ । जो रहने पर भी नही दिखाई देती उसे मेरी माया ही समझना चाहिए । शुरू में मैं ही था जब कुछ नहीं था उस समय जो भी था वही ईश्वर है ,शून्य से सर्जन नही होता । तत्व की दृष्टि से यह सम्भव नही है । पहले बीज था तभी रचना हुई । जो था, जिसे भी बीज मानो वही ईश्वर है और वो हमेशा था प्रकृति के रूप में होना ही उसका स्वभाव है। पश्चात् हम -जब सारी सृष्टि का विलय हो जायगा तब भी मैं ही हूँगा यानी था और रहूँगा । हर चीज बदलती रहती है, शक्ति या पदार्थ का रूपांतरण होता है, नाश नही होता। जैसे कोई चीज जली तो पदार्थ बचा रह गया, द्रव अंतरीक्ष में किसी न किसी रूप में है। संसार में कई चीजे हैं, जैसे प्रेम जो दिखता नही, पर है । अन्वय -उसे कहते हैं, जब एक की उपस्थिति से दूसरे का एहसास हो जाए, जैसे दूर कहीं धुँआ दिखता है तो वहां आग का होना सिद्ध है। ठीक इसी तरह भगवान् दिखता नहीं, पर सृष्टि तो है न। कौन है इसका रचना कार? इतनी बड़ी ,इतनी सुंदर ,इतनी अकल्पनीय ,इतनी विराट ,इतनी अद्भुत इस सृष्टि का रचनाकार कौन है? व्यतिरेक -यही है, यह सृष्टि है इसलिए इसका रचनाकार भी होगा। वही है जिसे हम ईश्वर कहते हैं, वो न होता तो सृष्टि न होती। सर्जक बिना सर्जन के रह सकता है पर सर्जन तभी होगा जब सर्जक यानि बनाने वाला होगा । गायक बिना गीत के रह सकता है पर गीत तभी होगा जब गाने वाला होगा। सारे संसार को चेतना देने वाला दिखता नहीं, पर है। हम उसकी कृपा पर ही साँस लेते हैं, बदले में वो हमसे कुछ नही लेता । जब सारा संसार सो जाता है, निष्क्रिय हो जाता है, उसकी प्रकृति तब भी अपना काम करती है। वो हम सब की ख़बर रखता है कि किसे क्या चहिये ।इस संसार को ईश्वर ने अपने रहने का निवास बनाया, संसार असार नही है, छल भी नही, झूठ भी नहीं, कहाँ जाओगे छोड़ कर? इसे अपने धर्म के पथ पर चल कर सुंदर बनाओ। संसार में ईश्वर ने सुविधा की व्यवस्था की है, हम उसके बनाये इस घर को संवार कर स्वर्ग बना सकते है उसने हमारे लिए समय निश्चित कर रखा है, जब तक रहो बनाओ । यही सत्य है "श्री कृष्ण को वासुदेव के पुत्र को जिनका नाम हरी है ,जिसको प्रणाम करते ही क्लेश का नाश हो जाता है" उन गोविन्द को नमन !
श्री कृष्ण ने भागवत में उद्धव को बताया है -अपने सम्पूर्ण विकास के लिए पाँच देवो की आराधना करनी चाहिए । प्रथम -गौरी पुत्र गणेश की, महादेव की, विष्णु की, सूर्य भगवान् की और पांचवी माँ दुर्गा की ।
स्वयं श्री राम और कृष्ण ने माँ भगवती की पूजा की है । अब अगर आप शैव हैं तो केन्द्र में देवाधिदेव" शिव" को, अगर आप वैष्णव हैं तो केन्द्र में "नारायण" को बिठाइए बाकी चारो देवो को दरबारी बनाइये इसे पंचायतन कहते है । हमारे समाज में माँ का स्थान सबसे ऊँचा है ,एक ऋषि ने कहा है -कोमलता में जिसका ह्रदय गुलाब की कलियों से भी कोमल है ,जो दया का सागर है, पवित्रता में जो यज्ञ की महक के सामान, कर्तव्य में कठोर है, वही माँ है । यह अनोखी और अद्भुत कृति है । इसलिए देवों ने इनकी पूजा की। जो काम कोई नही कर सका, उसे जगत जननी ने किया । तीन रूपों में आदि काल से इनकी पूजा होती आ रही है -महा सरस्वती, महा काली, महा लक्ष्मी; माँ के ये तीनों रूप हमारे जीवन को पूर्णता प्रदान करते हैं । देवी पूजा- शक्ति है और नारायण पूजा, आत्मा । श्री गणेश विघ्न का नाश करते हैं।
पाँच देवों की पूजा नित्य कर्म में शामिल करने से जीवन शुद्ध हो जाता है, रक्षा होती है, विवेक बढ़ता है मन बलवान होता है, इन्द्रियाँ शुभ चिंतन करती हैं। दुनिया का सबसे बड़ा दुःख - दरिद्रता मिट जाती है। भगवान् कहते हैं - जिसने अंत समय में मेरा नाम लिया मैं उसका भी उधार नही रखता चाहे वह राक्षस ही हो, उसे भी तारता हूँ । प्रभु कहते है -यदि कोई तेरी निंदा करता है तो भी विचलित न हो ।
-यह विश्व मुझसे ही निकला है मैं ही सब में हूँ।
-मानव जन्म पुनीत हैं शुद्ध प्रेम और ज्ञान इस शरीर से ही पाया जा सकता है।
-मृत्यु का ग्रास बनने से पहले अमरता को प्राप्त कर।
-गुरु की कृपा अनुकूल वायु है ईश प्राप्ति लक्ष्य।
-प्रतिकूलता में भी चित्त की सम वृत्ति बनाए रखे ।
-विप्र और संत का अपमान कभी न करो।
-दानशीलता को ह्रदय में स्थान दो।
-जो कुछ भी सार्थक है, उसे पकड़ो, यही वैराग्य है।
-जीवन को बुद्धि के स्तर पर जियो, मन के नही ।
-जीवन जब हर प्रकार से दोष रहित हो जाए व् शुद्ध हो जाए, वही मुक्ति है ।
-भक्ति अकाल मृत्यु हरती है । यह भाव की उच्चता है, प्रकाश है, जो ईश्वर का पथ है।
श्री कृष्ण शरणम् मम्।

हम अक्सर सुनते हैं कि -धर्म, सत्संग और इससे सम्बंधित बातें सिर्फ़ सुनाने और सुनने में अच्छी लगती हैं, बाहर की दुनिया में इसे हम नही ला सकते व सब बेकार है, पर ऐसा नहीं है, हमें गंभीरता से विचार करना होगा, दृढ़ता के साथ अपने आदर्श से जुड़ना होगा । हमें यह सोचना चाहिए कि - हम सर्वशक्तिमान से जुड़े हैं, वो हमें शक्ति देगा, हम क्यों किसी से झुके या गलत का समर्थन करें, शान्ति से सोचें, आप आनंद से भर जायेंगे और दूसरो को भी आनंद दे पायेंगे। धीरे- धीरे बदलाव होगा, जरूर होगा। आज जिस तरह का जीवन हम जी रहे है उसमें भौतिक सुख तो पा जाते है पर दूसरे क्षण फ़िर अशांति घेर लेती है। स्थाई सुख और शान्ति पाना है तो सर्व से जुड़ना ही होगा ।


महर्षि व्यास ने देखा की किस तरह पुण्य क्षीण हो जाने पर आत्मा तरह तरह के दुःख पाती है । आत्मा हम सभी जीवो में है और वो हम सब को निर्देशित करता है ,वो परम आत्मा है और हम आत्मा ।आत्मा भी कई तरह की होती है अच्छी और बुरी भी होती है और सब अपने प्रारब्ध के अनुसार भोग करते है । वो बीज है और हम सब उसके द्बारा लगाए फल । हम उसकी रचना है वो हमारा रचयिता । आदमी सदियों से तलाश रहा है उसकी तलाश परमात्मा पर जाकर रूकती है । वो जज है अगर हमें कुछ चाहिए तो पहले अर्जी दो उसके धाम में जाओ प्रतीक्षा करो न्याय मिलेगा । लोग कहते है भगवान् हर जगह है ,वो हर जगह नही है पर वो हर जगह जा सकता अवश्य है जहाँ पुकारोगे वो आएगा । उनका भी धाम है वहां जाकर मिलो । जैसे किसी बड़े आदमी से उसके घर जाकर मिलो अपनी बात कहो तो वो सुनता है और कही राह चलते मिल जाय और आप कुछ कहो तो ,अपना कष्ट सुना कर मदद मांगो तो वो बात नही होती । घर जाकर मिलो तो परमात्मा खुश होते है हमारा कल्याण होता है । नारायण !

स्कंध -१/अध्याय -११

हम भागवत के कुछ उन अध्याय का वर्णन करेंगे जो हमारी कामना को पूर्ण करते है । प्रथम स्कंध में वर्णन है -महाभारत युद्ध के बाद भगवान् ने धर्म का राज्य स्थापित किया । युधिष्ठिर को राजा बनाया ,भगवान् अपने बांधवो का शोक मिटाने के लिए महीनों हस्तिनापुर में रहे जब जाने की अनुमति मांगी तो राजा ने ह्रदय से लगा कर स्वीकृति दे दी भगवान् रथ पर सवार हो कर द्वारिका के लिए चले । हस्तिना पुर के नर नारी विरह से ब्याकुल आपस में कह रहे है -ये ही वो सनातन पुरूष है जो प्रलय काल में भी स्थिर रहते है इनका स्वरुप बना रहता है इनकी भक्ति से अन्तः कर्ण पूर्ण शुद्ध हो जाता है ,सारे नगर वासी भगवान् पर पुष्प वर्षा कर रहे थे .....

भगवान् की नगरी द्वारिका बहुत समृद्ध थी नगर पहुँचते ही भगवान् ने पाञ्चजन्य शंख बजाया लोग खुशी से भागे प्रभु के दर्शन को ,भगवान् के होंठों से लाल हुआ श्वेत वर्ण का शंख बजते समय उनके कर कमलों में ऐसा लग रहा था जैसे लाल रंग के कमल परबैठा कोई राजहंस मधुर गान कर रहा हो । भगवान् जब शंख बजाते तो पापियो को भय और भक्तों को अभय मिलता ।

नगर वासियों ने प्रसन्न मन से अनेक प्रकार से प्रभु का स्वागत किया । स्वामिन !हम आपके उन चरण कमलो को सदा -सर्वदा प्रणाम करते हैं जिनकी वंदना ब्रम्हा ,शंकर और इन्द्र करते है ,जो इस संसार में परम कल्याण चाहने वालों का एक मात्र व् सर्वोतम आश्रय है ,भगवान् आपकी शरण में आने वालो का काल भी कुछ नही बिगाड़ सकता। हे विश्वभावन !आप हमारे स्वामी है ,जब आप हस्तिनापुर या मथुरा चले जाते है तब आपके बिना हमारा एक -एक क्षण वर्षो के सामान हो जाता है । नगर वासियों की प्रेम मई वाणी सुन कर प्रभु कृपा दृष्टि बरसाते हुए द्वारिका में प्रविष्ट हुए ।

द्वारिका के वैभव की तुलना किसी से नही की जा सकती पवित्र ब्रिक्षों ,लताओं ,कमल युक्त सरोवरों से घिरी द्वारिका का पराक्रम अतुलनीय था भगवान् के स्वागत में हर द्वार पर मंगल कलश ,दही ,धुप ,दीप और पताकाएँ लगी थी । वासुदेव ,अक्रूर ,अग्रसेन ,बलराम और जाम्ब वती पुत्र साम्ब शुभ शकुन के साथ स्वागत को आगे आए ।

भगवान् ने योग्यता अनुसार सब का स्वागत किया किसी को शीश झुकाकर किसी से हाथ मिलाकर किसी को गले लगा कर और किसी पर अमृत दृष्टी से । गुरु जनों का आशीर्वाद ले कर नगर में प्रभु ने प्रवेश किया । सूतजी -

शौनक जी से कहते हैं -कुल कामिनियाँ भगवान् के दर्शन को दौडी आई ,भगवान् के सुंदर वक्षस्थल में लक्ष्मी का निवास है ,उनके नेत्र सुधामय है ,भुजाएं शक्ति और चरण भक्ती का आश्रय स्थल है । जिसे नित्य, निहार कर भी त्रिप्ती नही मिलती । प्रभु का पीताम्बर और वनमाल ऐसे शोभायमान हो रहा है जैसे श्याम मेघ एक साथ सूर्य ,चन्द्रमा से ।

भगवान् सबसे पहले माता और पिता के महल में गए उन्हें प्रणाम किया फिर अपने महल में गए भगवान् के दर्शन पाकर रानियाँ भाव पूर्ण हो आनंदित हुई । पहले मन फिर नेत्र और बाद में शरीर से प्रभु का आलिंगन किया । सूतजी -

शौनक जी से कहते है -लक्ष्मी जो स्वभाव से चंचल है वे भी प्रभु को एक क्षण के लिए अकेला नही छोड़ती तो अन्य कोई कैसे तृप्त हो सकता है । भगवान् ने युद्ध में इतनी बड़ी सेना को एक दूसरे से लड़वा कर ख़तम कर दिया और आप भी उपराम हो गए जैसे वायु बांसों में घर्षण पैदा कर के दावा नल से जला देती है उसी प्रकार भगवान् ने अधर्म को जला दिया पृथ्वी को पवित्र कर दिया । वो ही साक्षात परमेश्वर का अवतार है उनके अनुपम सौन्दर्य से बेसुध हो कर विश्व विजई कामदेव ने अपना धनुष त्याग दिया । वे प्रकृति में स्थित हो कर भी उसके गुणों से लिप्त नही होते यही तो है भगवत्सत्ता । ॐ तत्सत !

स्कंध -२/अध्याय -२

श्री शुकदेव जी कहते है -जब सारी पृथ्वी जल में डूब गई थी तब ब्रम्हा जी ने जगत को वैसे ही रचा जैसे प्रलय के पहले थी । वेद की वर्णन शैली बुद्धी को स्वर्ग के मायामय लोक में फंसा देती है लेकिन मनुष्य को वहां भी सच्चे सुख की प्राप्ति नही होती । पुण्य ख़तम होते ही स्वर्ग का सुख छीन लिया जाता है इसलिए विद्द्वान परुष को इस माया से इतना ही प्रयोजन रखना चाहिए जितना जरुरी हो । हमेशा याद रखो की स्वर्ग के उपार्जन का परिश्रम एक दिन ब्यर्थ हो जायगा । सतोष बुद्धी रखना चाहिए । दृडः निश्चय से नारायण का भजन करो अज्ञान का नाश हो जाता है ।

भगवान् का ध्यान करे -अपने ह्रदय के भीतर उनके स्वरुप की धारणा करे की भगवान् की चार भुजाओं में शंख ,चक्र ,गदा और पद्म है । उनकी हँसी मोहक है ,नेत्र कमल के समान विशाल वे केसरिया वस्त्र धारण किए हुए है ,भुजाओं में श्रेष्ठ रत्नों से जडित सोने के बाजूबंद शोभायमान है मस्तक पर सुंदर मुकुट और कानो में मकर कुंडल ,उनके चरण कमलवत है ह्रदय पर श्री वत्स का चिह्न -एक सुनहरी रेखा है .गले में कौस्तुभ मणि लटक रही है ,घुटनों तक उनके बनमाल है ,कमर में करधनी ,उँगलियों में अंगूठी ,हाथो में कंगन धारण किए है ,उनकी लटें घुघराली है चितवन मोहक है भगवान् के इस रूप को मन में बार -बार बिठाओ जब तक यह रूप स्थिर न हो जाय धीरे -धीरे बुद्धि शुद्ध हो होकर चित्त स्थिर हो जायगा । ये भगवान विश्स्वेस्वर दृश्य नही द्रष्टा है । प्रभु से अनन्य प्रेम हो यही भक्ति -योग है ।

परीक्षित कहते है नित्य शुद्ध हो कर ,सुखासन में बैठ कर इस रूप का ध्यान करो । संयम से मन व् बुद्धि को अंतरात्मा में लीनं कर दो अंतरात्मा को परमात्मा के इसी रूप में लगा दो शान्ति मय अवस्था में मन स्थित हो जाय । जब ऐसा कर ले तो कुछ भी कर्तब्य शेष नही रहता इस अवस्था में काल की दाल भी नही गलती फिर देवता और मानव की क्या ? योगी इस रूप के आगे जगत के सब पदार्थ को त्याग देते है ,इस रूप का आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेम में परिपूर्ण रहते है यही तो परमपद है । ऐसा समस्त शास्त्र कहते है ।

योगी जब इस अवस्था में आ जाता है तब उसके लिए कुछ भी असाद्ध्य नही रह जाता । तीनो लोंको में विचरण कर सकता है अपनी मन व् बुद्धि से वह सब कुछ जान सकता है ,शोक ,दुःख .बुढापा ,मृत्यु से वह अभय हो जाता है। महाप्रलय के वक्त भी वह आनंद में रहता है आवागमन से मुक्त हो जाता है परमात्म स्वरुप हो जाता है । ऐसा भगवान् वासुदेव ने ब्रम्हा से कहा है। संसार में सबसे कल्ल्यान कारी मार्ग है प्रभु का नाम । यह अमृत है जीवन को पावन कर देता है । ॐ तत्सत !

.स्कंध -३/अध्याय - 2

उद्धव जी ने भगवान् की बाल लीलाओं का वर्णन किया है ।

श्री शुकदेव जी कहते है -जब विदुर जी ने उद्धव से श्री कृष्ण जी की बात की उनका ह्रदय भर आया वो कुछ देर तक प्रभु के ध्यान में सराबोर हो मौन हो गए ,प्रेम से ह्रदय भर गया वाणी रुद्ध हो गई । उद्धव जी बचपन से ही भगवान् की पूजा और भक्ति में इस तरह लीन हो जाया करते थे की उन्हें भोजन की सुध भी न रहती थी वो माता के बुलाने पर भी न जाते थे । अब तो विदुर जी बूढे हो चले थे । तीब्र भक्ति में डूबे उद्धव से जब कोई श्री कृष्ण की बात करता तो वो सुध खो देते थे नेत्रों से प्रेम के आंसू बहने लगते ।

उद्धव जी ने कहा -विदुर जी !जब से श्री कृष्ण रुपी सूर्य छिप गया तब से हमारे घरों को कालरूपी अजगर ने खा डाला है । मनुष्य लोक (पृथ्वी ) बड़ा अभागा है क्या कुशल सुनाऊ ,यादव वंश तो नितान्त भाग्यहीन है श्री कृष्ण के साथ रह कर भी "कृष्ण "को नही पहचाना । यादव बड़े समझदार कृष्ण के मन के भाव को समझने वाले ,भगवान् के साथ क्रीडा करने वाले थे तो भी उन्हों ने "श्री कृष्ण "को एक श्रेष्ठ यादव ही समझा । जिन्हों ने कभी तप नही किया भगवान् ने उनको भी दर्शन दिया जब मानव के ,समाज के ,धर्म के कार्य पूरे हो गए तो भगवान् ने अपने त्रिभुँवन मोहन रूपको छिपा कर अंतर्ध्यान हो गए । योगमाया के प्रभाव से प्रभु ने मानव लीला करने हेतु इतना सुंदर विग्रह पाया की सारा जगत उस रूप को निहार कर ही जड़ हो जाता था। उनके सौदर्य में सौभाग्य और सुन्दरता की पराकाष्ठा थी । गुणों को उनकी तलाश होती थी ।

धर्मराज युधिष्ठिर के राज सूय यग्य में जब भगवान् के नयना भिराम रूप पर लोगो की दृष्टि पडी तब सबने यह माना की विधाता ने अपनी सब चतुराई इसी रूप में लगा दी है ,उनके प्रेम पूर्ण हास्य ,विनोद और बांकी चितवन को देख लोग जड़ हो जाते ,पुत्तलिका बन जाते ,ब्रज -बालाएं तो घर के काम -काज को छोड़ उनको देखने के लिए आती । भगवान् अजन्मा हो कर मानव उद्धार हेतु अवतार लिया श्री कृष्ण की याद जब आती है तो आज भी मेरा मन ब्याकुल हो जाता है ऐसा कौन है जो उनको भूल सके । महाभारत युद्ध में अर्जुन के वानो से बिधे भीष्म पितामह श्री कृष्ण के दर्शन पाते ही अर्चना करने लगे खुश हो कर परम धाम को गए ।

उद्धव कहते है -विदुर जी "श्री कृष्ण " के समान भी कोई और नही है वे स्वतः सिद्ध ऐश्वर्य से पूर्ण है । इन्द्र आदि देवता अपने मुकुट को उनके चरण रखने रखने की चौकी पर रख कर प्रणाम करते है । ब्रम्हा जी की प्रार्थना से पृथ्वी का भार उतारने के लिए कंस के कारागार में भगवान् ने जनम लिया । उस समय कंस के डर से उनके पिता वासुदेव उन्हें नन्द बाबा के घर पहुँचा दिया जहाँ भगवान् ११ वर्ष तक रहे ब्रज में सबको सुख दिया अपनी बल लीला से सबको महामोह में दाल दिया ,भगवान् ने ग्वालो के साथ ,बछडो के साथ, गोपियों के साथ यमुना के उपवन में बिहार किया । बांसुरी की सुरीली तान पर पूरा भुवन मुग्ध हो जाता मनुष्य तो क्या पशु -पक्षी भी जड़ हो जाते हिरन भागे आते ,चिडियां चहचहाना भूल जाती ,फूल खिल जाते ,भ्रमर गुन्गुनान भूल जाता ,ब्रज गोपियाँ जो जिस अवस्था में होती भाग आती बांसुरी की सुरीली तान सुन कर उसे अपनी देह का भान नही रहता था । ब्रज में भगवान् ने खेल -खेल में कई रक्षसो को मार डाला ,कालिया को मार कर यमुना जी के जहरीले जल को पवित्र कर दिया । भगवान् ने गोवर्धन पूजा करायी इन्द्र ने क्रोध में अति बृष्टि की भगवान् ने गोवर्धन को उठाया और ब्रज वासियों की रक्षा की भगवान् ब्रज की शोभा बने .ॐ तत्सत !


स्कंध -३ /अध्याय -१२

श्री मैत्रेय जी ने विदुर जी कहा -सुनिए श्रिष्टी का विस्तार कैसे हुआ ,किस प्रकार ब्रम्हा जी ने इस श्रिष्टी को रचा । सबसे पहले उन्होंने अग्ज्ञान की पाँच वृत्तियाँ बनायी - तम् ,मोह ,महामोह ,द्वेष , लोभ की रचना की तो यह श्रिष्टी पाप से रत हो गई । ब्रम्हा जी भगवान् के ध्यान में पवित्र हो कर दूसरी श्रिष्टी रची । सनक ,सनंदन ,सनातन और सनत्कुमार को बनाया ये चारों ऋषि थे ब्रम्हा जी ने कहा पुत्रों तुमलोग श्रिष्टी रचना में योगदान करो ,परन्तु ये तो जन्म से ही भगवान् में रत थे कहा मैं यह नही कर सकता । ब्रम्हा जी को क्रोध आया की मेरे पुत्र आज्ञा नही मान रहे क्रोध के कारण ब्रम्हा की भौहों के बीच से एक नील लोहित बाल रूप प्रकट हुआ ,ये देवताओं के पूर्वज रुद्र थे ॥ये जन्म लेते ही रोने लगे रुद्र ११ थे इनकी ११ पत्नियाँ थी बोले मुझे रहने का स्थान बता दे तब ब्रम्हा जी ने कहा मैंने तुम्हारे रहने के स्थान बनाए है ये है -हृदय , इन्द्रियाँ ,प्राण ,आकाश ,वायु ,अग्नी ,जल ,पृथिवी ,सूर्य ,चंद्रमा और तप . ये रुद्र इनकी पत्नियाँ है - ११ रुद्रानियाँ इनके द्बारा बहुत सी प्रजा हुई जो आकर ,स्वाभाव और बल में रुद्र के समान ही थे ये सारे संसार का भक्षण करने लगे क्योकि ये ब्रम्हा के क्रोध से हुए थे ,ब्रम्हा जी ने कहा सुरश्रेष्ठ तुम्हारी प्रजा सब दिशाओं को भस्म कर रही है ऐसी सृष्टी न रचो तुम जाओ तपस्या करो ताकि सब का कल्याण कर सको और ज्योति स्वरूप श्री हरी को पा सको ।

रुद्र ने कहा -बहुत अच्छा !कह कर तपस्या करने जंगल को चले गए इसके पश्चात ब्रम्हा जी ने फिर सृष्टी का संकल्प किया उनके दस पुत्र हुए । जिनमे नारद जी ब्रम्हा की गोदी से ,दक्ष अंगूठे से ,वसिष्ठ प्राण से ,भृगु त्वचा से ,क्रतु हाथ से पुलह नाभि से ,पुलत्स्य ऋषि कानो से ,अंगीरा मुख से ,अग्नि नेत्र से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए । फिर उनके दाहिने स्तन से धर्म और और पीठ से अधर्म उत्पन्न हुआ भौहों से क्रोध होठ से लोभ मुख से सरस्वती ,छाया से कर्दम जी ,इस प्रकार सारा विश्व ब्रम्हा जीसे उत्पन्न हुआ ।

श्री मैत्रेय जी कहते है -विदुर जी !ब्रम्हा जी सरस्वती के मनोहर रूप को देख मोहित हो गए तब उनके पुत्र और ऋषियों ने कहा यह दुस्तर पाप है ,जगत गुरो आपको यह शोभा नही देता आप श्रेष्ठ है सब आपका अनुसरण करेंगे। यह सुन ब्रम्हा जी लज्जित हुए अपने शरीर को त्याग दिया जिसे सब दिशाओं ने ग्रहण कर लिए उससे कुहरा बना जो अन्धकार का प्रतीक है ।

ब्रम्हा जी ने पुनः शरीर धारण किया हरी की प्रेरणा से एक सुव्यवस्थित रचना करने का संकल्प लिया ऐसा सोचते ही उनके मुख से चार वेद प्रकट हुए ब्रम्हा जी शब्द स्वरूप है -वाणी रूप में व्यक्त और ॐ कार रूप में अव्यक्त है ,उनसे परे जो सर्वत्र परिपूर्ण है वो परब्रम्ह है । इस प्रकार इस विश्व का विस्तार हुआ पर बहुत कम ब्रम्हा जी संतुष्ट नही हुए ,सोचने लगे इतना प्रयास करने के बाद भी विस्तार नही हो रहा लगता है विधाता ही बिघ्न कर रहा है ,तभी उनका शरीर दो भागों में बंट गया "क "ब्रम्हा जी का नाम है उन्ही से बिभक्त होने के कारण शरीर को काया कहते है । ब्रम्हा जी के शरीर का एक भाग स्त्री और दूसरा भाग परुष का हुआ ये ही मनु और शतरूपा बने यही से मैथुनी सृष्टी का आरम्भ हुआ ,मनु -शतरूपा के पाँच संताने हुई दो पुत्र प्रिया व्रत और उत्तानपाद तथा तीन पुत्रियाँ आकूति ,देवहुति और प्रसूति । इनका विवाह हुआ आकूति का रूचि प्रजापति से ,देवहुति का कर्दम से और प्रसूति का दक्ष प्रजापति से । इन तीन कन्याओं से सारा संसार बना ब्रम्हा जी अपनी इस रचना से संतुष्ट हो गए ।

ॐ तत्सत !!!

स्कंध -३/अध्याय -२३

श्री मैत्रेय जी ने कहा -विदुर जी !मनु और शतरूपा रूपा ने अपनी कन्या देवहुति का विवाह कर्दम मुनि से किया । देवहूति प्रतिदिन प्रेम पूर्वक पति के अभिप्राय को समझ कर उनकी सेवा करने लगी जैसे पार्वती जी ने शंकर की सेवा की काम ,दंभ ,लोभ ,पाप और मद को त्याग कर बड़ी सावधानी व् लगन के साथ । सेवा में विश्वास ,संयम ,प्रेम के साथ अपने परम तेजस्वी पति को संतुष्ट कर लिया !देवहुति बहुत दिनों तक सेवा में लगी रही व्रत का पालन करती रही इसलिए बहुत दुर्बल हो गई थी । कर्दम जी को दया वश खेद हुआ बोले मनुनंदिनी !तुमने मेरा बड़ा आदर किया है तुम्हारी उत्तम भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ ,मेरी सेवा से तुम्हारा शरीर बहुत क्षीण हो गया है योग के द्बारा मुझे भय और शोक से रहित विभूतियाँ प्राप्त हुई है उन पर अब तुम्हारा भी अधिकार है । तुम मेरी सेवा से भी कृतार्थ हो गई हो मैं तुम्हे दिव्य -दृष्टि देता हूँ उनके द्बारा देखो की पतिव्रत धर्म के पालन से तुम्हे दिव्य भोग प्राप्त हुए हैं तुम इन्हे भोग सकती हो । कर्दम जी के इस प्रकार कहने से देवहुति का मुख खिल उठा वो विनय और प्रेम से भरी वाणी में बोली -स्वामिन !मैं यह जानती हूँ की कभी न निष्फल होने वाली तिगुनात्मिका योगमाया पर अधिकार रखने वाला ऐश्वर्य आपको प्राप्त है । आपने विवाह मैं प्रतिज्ञा की थी की मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ सुख का उपभोग करूँगा उसकी पूर्ति अब होनी चाहिए । श्रेष्ठ पति द्बारा संतान प्राप्त होना महान लाभ है गृहस्थ सुख के लिए जो सामग्री चाहिए उसका ,एक भवन भी होना चाहिए ।

मैत्रेय जी कहते है -विदुर जी !कर्दम जी अपनी प्रिया की इक्षा पूरी की । योग बल से एक अद्भुत विमान की रचना की जिससे सर्वत्र जाया जा सकता था । यह विमान सभी सुख सुविधाओ से पूर्ण था इसकी शोभा विस्मित करने वाली थी इसमे मणि मय खम्भे ,दिव्य सामग्रियां ,सुंदर पुष्प वाले सरोवर ,सोने की शैया ,रेशमी वस्त्र ,पन्ने का बना फर्श ,मणियों के बने सजीव हंस व् कबूतर ,मूंगे की वेदियाँ ,क्रीडा स्थली ,शयन कक्ष .आँगन आदि जी देख कर देवहुति परम प्रसन्न हुई कर्दम जी ने कहा विमान पर चलो देवी -कमल लोचना देवहुति ने सरोवर में स्नान किया ,महल में स्थित एक हजार कमल गंध वाली किशोरियां उनकी सेवा में लगी ,सुगन्धित उबटन से स्नान कराया ,सुंदर रेशमी वस्त्र पहनाये देवहुति का मिला और मुरझाया हुआ शरीर कान्तिमान हो गया अब उनको सुंदर आभूषण पहनाया पीने को अमृत आसव दिया देवहुति अपूर्व शोभा को पा रही थी ,मुख कमल से स्पर्धा कर रहा था । जब उन्होंने कर्दम जी का स्मरण किया तो उनको वही पाया । कर्दम जी ने अपनी प्रिया को विमान पर दीर्घ काल तक मेरु पर्वत की घाटियों में विहार कराया । इस विमान में काम देव को बढ़ाने वाली सुगन्धित वायु चल कर कमनीय शोभा का विस्तार कर रही थी ,सिद्ध गन इनकी वंदना करते थे । दोनों ने अनुराग पूर्वक विहार किया। विदुर जी !इन्होने ने भगवान् के भवभय हारी पवित्र चरणों का आश्रय लिया है इसलिए कर्दम जी के लिए कुछ भी दुर्लभ नही है यहाँ कर्दम जी ने अपनी शक्ति के बल पर पत्नी की कामना को पूर्ण किया । इस अनुपम विहार के बाद ऋषि आश्रम को आए देवहुती ने संतान की कामना की ,नौ कन्या देवहुति को हुई । पूर्व में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार जब कर्दम जी तप को जाने लगे तब देवहुति ने उनके चरण पकड़ लिए बोली - स्वामिन !आप चले जाओगे तो पुत्रियों का विवाह कैसे होगा इनके लिए वर कौन खोजेगा ,मेरे शोक को कौन हरेगा !मैं तो माया से ठगी गई । इन्द्रिय सुख ब्यर्थ हो गया । फिर हरी की प्रेरणा से कर्दम जी को कपिल नाम का पुत्र हुआ जिसके जन्म लेते ही कर्दम जी तपस्या करने वन को चले गए .कपिल मुनि महान ऋषि हुए और अपनी माता के गुरु भी ,कपिलदेव जी ने अपनी माता को ज्ञान दिया सभी बहनों का विवाह भी किया। ॐ तत्सत !

स्कंध -४ /अध्याय ९

इस अध्याय में बालक ध्रुव का वर्णन है जो अपनी सौतेली माँ से अपमानित हो कर भगवान को पाने जंगल में तप करने चले गए । पहले महीने जंगली कंदमूल खाकर तप किया धीरे धीरे वो केवल जल फिर पाँचवे महीने श्वास को जीत कर तप करने लगे । ह्रदय में हरी को स्थापित कर एक पैर पर खड़े होकर जब "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" का जप किया तो तीनो लोक थम गए क्योकि हरी को ह्रदय में धारण कर भक्त ध्रुव हरी से एकाकार हो गए । सब के प्राण रुक गए देवता घबरा कर नारायण के पास आए बोले - पाहि प्रभु !

श्री भगवान् ने कहा -देवताओं !ध्रुव् ने चित्त को मुझमे लीनं कर दिया है इसी कारण सब की यह दशा हुई है ,मैं जाकर उसे अभी इस दुष्कर तप से मुक्त करता हूँ ।

श्री मैत्रेय जी कहते है -विदुर जी !भगवान् के इस आश्वासन से देवताओं का भय जाता रहा । भगवान् गरुण पर सवार हो कर अपने भक्त को देखने के लिए मधुवन गए। उस समय ध्रुव जी जिस तेजोमय मूर्ति का ध्यान कर रहे थे वह विलीन हो गई ध्रुव ने घबरा कर ज्यों ही नेत्र खोला उसी रूप को बाहर अपने सामने खड़ा देख अधीर हो पृथिवी पर दंडवत लेट कर चरणों में नमन किया । हाथ जोड़ कर प्रभु को देखने लगे स्तुति करना चाहते थे पर कैसे करे यह नही जानते थे सर्वान्तर्यामी भगवान मन की बात जान गए उन्होंने कृपा पूर्वक अपने वेदमय शंख से ध्रुव के गालो को छुआ -स्पर्श होते ही ध्रुव को दिव्य वाणी प्राप्त हो गई वे जीव और ब्रम्ह को जान गए स्वरुप को पहचानते ही श्री हरी की स्तुति करने लगे ।

ध्रुव जी बोले -प्रभो !आप सर्व शक्ति संपन्न है आप ही मेरे प्राणों में प्रवेश करके अपने तेज से मेरी वाणी को सजीव किया है मेरी समस्त इन्द्रियों को चेतना दी मैं आप अन्तर्यामी भगवान् को प्रणाम करता हूँ !

भगवान् !आप एक ही हैं परन्तु अपनी अनंत गुनमई शक्तियों से सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हैं ,असत गुणों से देवताओं के रूप में स्थित हो कर अनेक रूप हो जाते हैं । जैसे तरह -तरह की लकडियों में प्रकट हुई आग विभिन्न रूपों में भासती है ।

नाथ !ब्रम्हा जी ने आपकी शरण ले कर ज्ञान के प्रभाव से इस जगत को देखा । दीनबन्धो !मुक्त पुरूष भी आपके चरण तल की शरण लेते हैं।

प्रभो !इन शरीरों के द्वारा भोग जाने वाला सुख चाहने पर तो नरक में भी मिल जाता है ,पर जो आपकी उपासना आपकी प्राप्ति के सिवा किसी अन्य उद्देश्य के लिए करते हैं अवश्य ही उनकी बुद्धि आपकी माया द्वारा ठगी गई है ,नाथ !आपके चरण कमलो का ध्यान करने से जो आनंद मिलता है वह ब्रम्ह में भी नही मिलता ।

अनंत परमात्मन !मुझे आप शुद्ध ह्रदय भक्तो का संग दीजिये उनसे मैं आपकी लीलाओं और गुणों को सुनता जाऊंगा और संसार के दुःख रूपी सागर को पार कर जाऊंगा ।

कमलनाभ प्रभो !जिनका चित्त आपके चरणों में लगा वे अपने शरीर और सगे सम्बन्धियों की भी चिंता नही करते ,अजन्मा परमेश्वर !मैं तो स्थूल को ही जानता हूँ इससे परे जो आपका परम स्वरुप है उसे कहने की शक्ति मेरी वाणी में नही है ।

भगवन !कल्प का अंत होने पर इस विश्व को जो अपने उदर में लेकर शेषजी की शैया पर शयन करते हैं और उनकी नाभि से निकला कमल ,जिससे ब्रम्हा जी जन्मे वो भगवान् आप हैं मैं आपको नमन करता हूँ

प्रभो !आप अपनी चिन्मई दृष्टी से सबके साक्षी है । हे नित्यमुक्त ,सत्वमय ,सर्वग्य, निर्विकार ,आदि पुरूष आप तीनो गुणों के अधीश्वर हैं ,संसार के अधिष्ठाता हैं ,आप जगत के कारण अखंड, अनादी और अनंत हैं । मैं आपकी शरण मैं हूँ भगवन !निष्काम भाव से की गई पूजा का फल आपका दर्शन है ।

स्वामिन !जैसे गाय अपने बछडे को हिंसक पशुओं से बचाती है उसे दूध पिलाती है उसी प्रकार आप भी हम जैसे जीवो की रक्षा करते हैं और कामना पूर्ण करके संसार भय से मुक्त करते हैं ।

ध्रुव जी ने इस प्रकार परम पावन श्री भगवान् की स्तुति की ! शुभ संकल्प वाले ध्रुव जी की स्तुति से खुश हो कर प्रभु ने कहा -हे उत्तम व्रत का पालन करने वाले राज कुमार मैं तेरे संकल्प को जानता हूँ उसका प्राप्त होना कठिन है तो भी मैं तुम्हे देता हूँ । तेरा कल्याण हो !

भद्र !जीस तेजोमय अविनाशी लोक को आज तक कोई नही पा सका वो मैं तुझे देता हूँ इस पृथिवी पर भी तुम अपने पिता द्वारा प्राप्त सिंघासन को धर्म पूर्व छत्तीस हजार वर्ष तक चलाओगे तुम्हारी शक्तियाँ कभी क्षीण नही होंगी । आगे चल कर तुम्हारा भाई उत्तम शिकार खेलते मारा जायगा उस गम में तुम्हारी माँ पागल हो जायगी । उसे खोजते हुए वह जंगल के दावानल में प्रवेश कर जायगी । ध्रुव !यग्य मेरी प्रति मूर्ति है तुम बड़ी -बड़ी दक्शिनाओं वाले यज्ञ करोगे । मेरा स्मरण करोगे उत्तम भोगों को भोगोगे अंत में मेरे निज धाम को प्राप्त करोगे जो सप्त ऋषियों को भी दुर्लभ है ।

श्री मैत्रेय जी कहते हैं -इतना कह कर भगवान् गरुण पर सवार हो कर निज लोक को गए । इतना पाकर भी ध्रुव प्रसन्न नही दिखे । दुर्लभ पद पाकर भी कृतार्थ नही हुए क्योकि उनके ह्रदय में सौतेली माँ का वचन चुभा था । लेकिन प्रभु का दर्शन मिल जाने के कारण मन पवित्र हो गया था । भगवान् के जाने के बाद ध्रुव सोचने लगे जी प्रभु को पाने के लिए सिद्ध पुरूष कई जन्म तक तप करते हैं उनको मैंने छ महीने पा लिया पर मैं मलिन मन रह गया मैं कितना भाग्यहींन हूँ । नाशवान संसार में पड़ा रहा ।

इधर जब उत्तानपाद ने सुना की उनका पुत्र ध्रुव घर आरहा है तो सोचा "मेरा ऐसा भाग्य कहाँ "पर उन्हें नारद जी की बाद याद आई विश्वास हुआ खुशियाँ मनाई जाने लगीं उनकी अगवानी के लिए हाथी घोडे सुवर्ण जटित रथ तथा मंगल बाजे बजाते हुए राजा -रानी और भाई ,गुरुजनों के साथ नगर के बाहर आए । ध्रुव का मन निर्मल हो गया था वे प्रेम से सबसे मिले और सब ने उनको आशीष दिया । ध्रुव ने महल में प्रवेश किया बड़े हर्ष के साथ । पूरा नगर सजाया गया था पताकाएं ,बंदनवार ,जक भरा कलश ,रंगोली ,फल से । ध्रुव का राज महल मणियों और रत्ना जटित खम्भों से जगमगा रहा था तरह -तरह के पक्षी चहचहा रहे थे ।

उत्तान पाद अपने पुत्र के अद्भुत पराक्रम और वैभव को देख प्रसन्न थे समय आने पर ध्रुव को राज्य दे तप करने वन को गए । ॐ तत्सत !

स्कन्ध -४ /अध्याय -२०

महाराजा पृथु की यज्ञ शाला में श्री विष्णु का आगमन । श्री मैत्रेय जी कहते हैं राजा पृथु ने निन्यानवे यज्ञ किया। विदुर जी !उस यज्ञ से श्री भगवान् विष्णु प्रसन्न हुए और अपने साथ इन्द्र देव को लेकर पृथु महाराज के पास आए। श्री भगवान् ने कहा -सुनो राजन् !इन्द्र ने तुम्हारे सौ अश्वमेध यग्य के संकल्प में विघ्न डाला है ,अब ये तुमसे क्षमा याचना करने आए हैं इन्हे क्षमा कर दो ।

नरदेव !को श्रेष्ठ ,साधू और बुद्धिमान होते हैं वे किसी से क्रोध नही करते ,क्यो की यह नाशवान शरीर आत्मा नही है ,यदि तुम जसे लोग माया से मोहित हो जाय तो समझना चाहिए की केवल श्रम ही हाथ लगा पुण्य नही यद्यपि ग्यानी पुरूष इस तरफ़ नही जाते । आत्मा का स्वरुप तो शुद्ध ,स्वयं प्रकाश ,गुणवान ,सर्वव्यापक ,साक्षी व् शरीर से भिन्न है जो ऐसा जानकार है वह प्रकृति से परिचित होते हुए उनमे लिप्त नही होता । वो केवल मुझसे प्रेम करता है ।

राजन !जो निष्काम ,श्रद्धा से ,नित्य मुझे भजता है उसकी बुद्धि धीरे -धीरे निर्मल हो जाती है । वह तत्व को जान लेता है और मुझे प्रिय हो जाता है । यही परम शान्ति है ,ब्रम्ह है और कैवल्य ज्ञान भी यही है ,वो पुरूष मोक्ष पड़ पा लेता है । मुझमे दृढ़ अनुराग रखने वाला हर्ष ,शोक के वशीभूत नही होता । इसलिए हे वीरवर ! तुम उत्तम ,मध्यम और अधम में समान भाव रख कर सुख -दुःख को समान समझो । मन और इन्द्रियों को जीत कर राजकीय पुरुषों की सहायता से सम्पूर्ण लोक की रक्षा करो । राजा का कल्याण प्रजा के पालन में है ,अगर प्रजा सुखी रहती है तो राजा का पुण्य और अगर प्रजा दुखी रहती है तो राजा को पाप का भागी होना पड़ता है । इसलिए राजन -श्रेष्ठ ब्राम्हणों की सम्मति लेकर धर्म और न्याय पूर्वक पृथ्वी का पालन करते रहो तुम्हे सब प्रेम करेंगे ,कुछ ही दिनों में सनकादी सिद्धों के दर्शन होंगे ।

राजन् !तुम्हारे गुणों ने मुझे वश में कर लिया है -जो चाहो मांग लो । चाहे जितना तप योग ,यज्ञ कोई कर ले पर अगर उसमे क्षमा और दया नही है तो मुझको पाना सरल नही है । अतःचितमें समता लाओ मैं तुम्हारे ह्रदय में रहूँगा ।

श्री मैत्रेय जी कहते हैं -विदुर जी !सर्व लोक गुरु "श्री हरी "के इतना कहने पर जगत विजयी राजा पृथु ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की । इन्द्र अपने किए पर लज्जित हुआ पृथु के चरणों पर गिरना ही चाहता था की राजा ने उसे ह्रदय से लगा लिया और मनो मालिन्य निकाल दिया । महराज पृथु ने प्रभु के चरण पकड़ लिए ,पूजन किया । श्री हरी जाना चाहते थे पर जा न सके वात्सल्य भाव से पृथु को देखते रहे ,पृथु नेत्रों में जल भरे ,हाथ जोड़े खड़े रहे बोले -मोक्षापति प्रभु !आप सबकुछ देते हैं पर ज्ञानी पुरूष विषयों को नही मांगता । आप मुझे हजारों कान दे दीजिये जिससे मैं आपकी गुणों की कथा सुनता रहूँ । उत्तम कीर्ति को आप से ही यश मिलता है यश को भी आपकी तलाश रहती है। जिसने एक बार भी आपके गुणों को सुन लिया उसका तो मंगल ही मंगल है । लक्ष्मी जी इसी कारण आपको नही छोड़ती ,जगदीश्वर हो सकता है लक्ष्मी जी मेरे विरुद्ध हो क्यों की जी सेवा में उनका अनुराग है मैं उसे मांग रहा हूँ । प्रभु !आप मुझ पर दया करे ,आप तो दीना नाथ है । प्रभु आप तो अपने स्वरूप में ही रमते हैं ,आपने कहा -वर मांग !प्रभु आपकी यह वाणी ही मोह में बाँध देती है ,आप मेरा कल्याण करे तथा जो मेरे हित में हो वर दे ।

श्री मैत्रेय जी कहते है -पृथु की स्तुति सुन कर सर्व साक्षी श्री हरी ने कहा -राजन !मेरी भक्ति करके तुम सहज ही उस माया से छूट जाओगे जो बड़ा कठिन है ,तुम्हारा सर्व मंगल होगा "इस प्रकार भगवन ने पृथु के वचनों को आदर दिया । पृथु ने प्रभु की पूजा की श्री हरी निज लोक को गए ,पृथु ने वहां आए सभी देवता ,ऋषि ,पित्र ,गधर्व ,चारण ,नाग किन्नर ,अप्सरा ,मनुष्य ,पक्षी व् अनेक प्राणियों की पूजा की ,प्रणाम किया। भगवान् सब का चित्त चुराते हुए अपने धाम को गए ,ॐ तत्सत !

स्कंध -४/अध्याय -२२

श्री मैत्रेय जी कहते हैं -पृथु के राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी । उनके राज्य में सूर्य के समान तेजस्वी चार मुनीश्वर आए उन्हें देखते ही राजा पहचान गए की ये सम्पूर्ण लोकों को पापनिर्मुक्त करते हुए आकाश से उतर कर आए है। राजा ने विधिवत उनकी पूजा की ,चरणोदक सर पर लिया । ये सनकादी मुनीश्वर शंकर के अग्रज थे ,वे सोने के सिंहासन पर ऐसे शोभित हुए जैसे अपने स्थानों पर अग्नि देवता ।

पृथु जी ने कहा -हे मंगलमूर्ति !आपके दर्शन तो योगियों को भी दुर्लभ है मेरा क्या पुण्य बना की स्वतः आपके दर्शन हुए । अवश्य मुझ पर ब्राम्हण ,शंकर और श्री विष्णु प्रसन्न हैं ,जिनके घरों में आप जैसे पूज्य मुनि जल ,त्रिन ,पृथिवी अथवा घर के किसी प्राणी की सेवा स्वीकार कर ले वे धन्य हो जाते है ,आपके चरण जहाँ पड़े वहां सब प्रकार की सिद्धियाँ आती है !!मुनीश्वरों आपका स्वागत है । आपलोग बाल्यावस्था से ही महान धर्म का पालन कर रहे है । नारायण अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए ही आप जैसे पुरुषों को पृथ्वी पर भेजते हैं । राजा के वचन सुन कर श्री सनत कुमार जी बड़े प्रसन्न हुए ।

सनत्कुमार जी बोले -महाराज !आपने सब के कल्याण के लिए बड़ी अच्छी बात पूछी ,साधू बुद्धि ऐसी ही होती है । राजन श्री मधुसूदन के चरणों में आपकी अविचल प्रीती है इसका प्राप्त होना बड़ा कठिन है । श्री कृष्ण के चरणों में निश्चय प्रेम ,गुरु और शास्त्र में विसश्वास रखना पुनीत आचरण है और कल्याण का साधन भी । निष्काम भाव से यम् नियमों का पालन ,निंदा से दूर ,सेवा भाव से कर्म करना ,प्रपंच से दूर रहना ह्रदय में श्री हरी को बसाना वैराग्य की प्रथमप्राथमिकता है । (आज ऐसा समय नही है की घर छोड़ कर जीवन जिया जा सके ,पर हम घर में रह कर भी सुख -दुःख में सम रहना ,सब का भला करना ,अंहकार से दूर रहना ,द्वेष न रखना ,मन को निर्मल रखना तथा विवेक से विचार कर कोई निर्णय लेना -यह सब कर सकते है यह भी वैराग्य है )

सनकादी मुनियों ने कहा -जो हरदम इन्द्रियों के चिंतन में रहता है वो जड़ हो जाता है उसका कोई पुरुषार्थ सिद्ध नही होता ,वह स्थावर योनिओं में जन्म लेता है और कभी मोक्ष को नही पाता ।

राजा पृथु ने कहा -भगवान् दीनदयाल श्री हरी ने मुझपर कृपा की जो आपलोग यहाँ पधारे हैं । आपने आत्मतत्व का ज्ञान दिया ,मैं आपको क्या दूँ ?मेरे पास जो कुछ है सब महापुरुषों का प्रसाद है ,ये राज्य ,स्त्री ,पुत्र ,धन ,महल ,सेना सब आपके श्री चरणों में अर्पित है । शासन का अधिकार केवल ब्राम्हणों को है ,ब्राम्हण अपना खाता है ,पहनता है और दान देता यह पूरी पृथ्वी ब्राम्हणों की है ,आपने मुझे बताया की अभेद भक्ति ही भगवान् को पाने का प्रधान साधन है । राजा पृथु ने श्रेष्ठ आत्मज्ञानियो का पूजन किया सनकादी मुनियों ने राजा के शील की प्रशंसा की और आकाश मार्ग से चले गए ।

पृथु ने अपने को उपकृत माना सब प्रकार की लक्ष्मी से परिपूर्ण राजा विषयों में नही पड़े उदार ,सौम्य ,मुक्त भाव से प्रजा की सेवा करते थे उनके पाँच पुत्र उनके अनुरूप थे । उनकी प्रजा उनका यशोगान करती उनकी तुलना इन्द्र से की जाती उनकी शक्ति वायु के समान ,धर्य सुमेरु के समान ,समृद्धी कुबेर के समान ,तेज शंकर के समान ,विचार ब्रिहश्पति के समान और कीर्ति श्री राम के समान थी वे सब के ह्रदय में बसते थे। ॐ तत्सत् !!

स्कंध-५ ,अध्याय -१ प्रियव्रत का चरित्र

राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा -मुने !प्रियव्रत जिनको गृहस्थ आश्रम में रहते हुए सिद्धि प्राप्त हो गई और श्री कृष्ण के चरणों में उनकी अविचल भक्ति ,कैसे प्राप्त हुई ?

शुक देव जी ने कहा -राजन !प्रियव्रत ने नारद ऋषि की चरण सेवा की थी इसलिए सहज ही उनको परमात्मा का बोध हो गया । वे हरी कथा के मार्ग का अनुसरण करने लगे और अखंड समाधि द्बारा समस्त इन्द्रियों को वासुदेव के चरणों में अर्पित कर दिया । भगवान् ब्रम्हा जी ने जब प्रियव्रत की ऐसी प्रवृत्ति देखी तो चारो वेदों के साथ मूर्तिमान हो कर प्रियव्रत के घर आए वहां नारद जी भी आए ,नारद जी ने अपने पिता ब्रम्हा का पूजन किया ।

श्री ब्रम्हा जी ने कहा -प्रियव्रत !मैं तुमसे सत्य सिद्धांत की बात कहता हूँ ,सुनो ! श्री हरी के

दिए हुए देह को सब जीव अपने कर्मों का भोग करने के लिए धारण करते है ,उनका विधान शिव ,मनु ,नारद और मैं भी नही बदल सकता । हम सब उनकी इक्षा अनुसार कर्म में लगे रहते हैं ,हमारे कर्मों के अनुसार हमें योनिया मिलती हैं और उसी अनुसार कर्म करते हैं ,सुख -दुख भोगते हैं ।

मुक्त पुरूष भी प्रारब्ध का भोग करता है पर जो इन्द्रियों के आधीन है उसमे भय बना रहता है ज्ञानी कष्ट को सहज सहन कर लेता है वह कष्ट आने पर घुटने नही टेकता सहर्ष आगे बढ़ता जाता है इसी तरह गृहस्थ भी ईश्वर को पा लेता है । प्रियव्रत तुम चरणकमल रूपी किले में रहो सबको जीत लोगे भोगों को भोगते हुए बाद में आत्म स्वरूप में स्थित हो जाओगे ।

ब्रम्हा जी की बातों को सुन कर प्रियव्रत ने विनम्रता से कहा 'जो आज्ञा ' अब पृथ्वी पति प्रियव्रत महराज भगवान् की इक्षा से सुशासन किया । शुद्ध ह्रदय प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री से विवाह किया ,महाराज की दूसरी पत्नी से तीन पुत्र हुए -उत्तम ,तामस ,और रैवत जो अपने नाम वाले मन्वन्तरों के अधिपति हुए ।

एक बार प्रियव्रत ने देखा की सूर्य देव जब सुमेरु की परिक्रमा करते हैं तो पृथ्वी के एक भाग में अँधेरा रहता है उन्हों ने संकल्प लिया की वे इस अन्धकार को ख़तम करेंगे । वे अपना ज्योतिर्मय रथ ले कर द्वितीय सूर्य की भांति सूर्य के पीछे -पीछे चले ,उनके रथ के पहियों के निशान से सात समुद्र बन गए और उससे सात दीप बन गए । प्रियव्रत ने सूर्य की सात परिक्रमा की ,भगवान् के भक्तों में ऐसा पुरुषार्थ होना कोई आश्चर्य की बात नही । शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को बताया -महा पराक्रमी राजा प्रियव्रत ने अंत में राज्य को अपने सुयोग्य पुत्रों को सौप कर स्वयं नारद के बताये मार्ग का अनुसरण किया । ॐ तत्सत !

स्कन्ध -५/अध्याय -१०

यह कथा श्री शुक देव जी सुना रहे हैं -राजा परीक्षित को

श्री शुकदेव जी बोले -राजन !एक बार सिन्धुसौबीर देस के राजा "रहूगन "पालकी पर चढ़ कर जा रहे थे जब वे इक्षुमती नदी के किनारे पहुंचे तो तो उनकी पालकी को उठाने के लिए एक और कहार की जरुरत पडी ,देववश उन्हें एक ब्राम्हण मिल गए जो स्वयं में आत्म लीना थे और जवान थे । कहारों ने सोचा ये बोझा ले कर चलने के लिए ठीक है और बलात पालकी में लगा दिया वे चुप -चाप पालकी ले कर कहारों के साथ चलने लगे । ये थे महात्मा -भरत जो हरी की भक्ति में डूबे रहते इनको अपने देह का भान नही था .कोई जीव पैरों तले दब न जाय इसलिए वे बच कर जमीन को देखते हुए चल रहे थे ,इस कारण पालकी उंची नीची हो रही थी और राजा को तकलीफ हो रही थी राजा ने ठीक से चलने को कहा तो कहारों ने कहा ये जो नया आया है वो ठीक नही चल रहा राजा ने चाल मिला कर चलने को कहा ,पर भरत वैसे ही चलते रहे ,राजा ने फ़िर कहा मैं तुम्हे दंड दूँगा तुमने राजाज्ञा का उलंघन किया है । तब भरत ने कहा राजन आपने जो कहा इस शरीर को कहा मुझे आप दंड दे दंड इस शरीर को मिलेगा और ऐसी बात एक देहाभिमानी ही कह सकता है ग्यानी नही ,मुझे इसका कोई लेश नही । तुम्हे अभिमान है की तुम राजा हो -बताओ क्या सेवा करूँ ,मैं तो जड़ के समान आत्म लीन रहता हूँ । ऐसा कह कर भरत जी चुप हो गए और पालकी ले कर चलने लगे । रहूगन की श्रद्धा जगी ह्रदय को भेदने वाली भरत की बात सुन कर पालकी से उतर गए चरणों में गिर गए बोले -देव !आप कौन है, आपने यज्ञो पवीत धारण किया है ,किसके पुत्र हैं ?यहाँ कैसे विचरण कर रहे हैं ?कहीं आप कपिल देव तो नही ? मैं यमराज से भी नही डरता पर ब्राम्हण देव से बहुत डरता हूँ । आप अपनी शक्ती को छुपा कर क्यों चल रहे हैं ? मैं आत्मज्ञानी मुनि कपिल से यह पूछने जा रहा था की इस लोक में शरण लेने योग्य कौन है ?

राजा ने कहा -मैं घर में आसक्त रहने वाला योगेश्वरों की गति कसे जान सकता हूँ । मुनिवर आपने जो कहा -इस शरीर को कुछ भी हो मुझे लेश नही ,तो मैंने अनुभव किया है युद्ध में श्रम होने पर देह ,इन्द्रिय ,प्राण और मन सब पर असर होता है आत्मा को भी सुख -दुक्ख का अनुभव होता है । दीनबन्धो !अभिमान से उन्मत्त होकर मैंने आप जैसे परम साधू की अवज्ञा की मुझ पर कृपा कीजिये !आप देहाभिमान शुन्य और श्री हरी के अनन्य भक्त हैं ,समदृष्टि वाले हैं आपके क्रोध से मुझे भगवान् शंकर भी नही बचा सकते ,मुझे क्षमा कर दीजिये !ॐ तत्सत !

स्कंध -५ /अध्याय -२०

हमारे भागवत में है -प्रियव्रत ने जब सात चक्कर पृथ्वी के लगाये तो उससे सात समुद्र और सात दीप बन गए ।

पहला है जम्बू दीप -जम्बू दीप अपने ही समान वाले विस्तार और परिमाण वाले खारे जल से परिवेष्ठित है । जबू दीप में सात पर्वत और सात प्रसिद्ध नदियाँ हैं । इसके बाद कुश दीप है जो घृत के समुद्र से घिरा है इसमे भगवान् का रचा हुआ कुशों का झाड़ है इसीलिए इसका नाम कुश दीप हुआ

इसके आगे क्रोंच दीप है यह अपने ही समान विस्तार वाले दूध के समुद्र से घिरा हुआ है इसे क्षीर समुद्र कहते है । पूर्व काल में स्वामी कार्तिकेय जी ने यहाँ देवों से युद्ध किया था । इसके बाद शाक दीप है जो अपने ही समान विस्तार वाले मट्ठे के समुद्र से घिरा है इसमे शाक नामक वृक्ष है ,इस वृक्ष की सुगंध से दीप महकता रहता है । इसके आगे पुष्कर दीप है जो अपने ही सामान परिमाण वाले मीठे जल के समुद्र से घिरा हुआ है । इसमे स्वर्ण पंखुडियों वाला एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल )है ,यहाँ ब्रम्हा जी का आसन है यहाँ के निवासी इस स्थान पर ब्रम्हा जी की पूजा करते है । राजन इस समस्त दीपों पर प्रियव्रत के पुत्रों ने शासन किया । राजा प्रियव्रत के १३ पुत्र थे जिन्हों ने पूरे विश्व में शासन किया ।

राजन इसके आगे लोकालोक नामक पर्वत है ,स्वर्ण मई भूमि है जो दर्पण के समान स्वच्छ है (आज का बर्फीला प्रदेश ),इसमे गिरी कोई वस्तु फ़िर नही मिलती यहाँ देवताओं का निवास है । राजन !यही है सम्पूर्ण लोको का विस्तार इसकी भूमि पचास करोड़ योजन है जिसमे १२ करोड़ योजन विस्तार वाला लोकालोक पर्वत है । शुकदेव जी कहते है -राजन !स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में जो ब्रम्हांड का केन्द्र है वाही सूर्य की स्थिति है सूर्य ही इस भू भाग को चेतन करते है ,ये हिरण्यमय ब्रम्हांड से प्रकटे है ,इसलिए इन्हे हिरण्य गर्भ भी कहते हैं । सूर्य के द्बारा ही दिशा ,आकाश ,अंतरीक्ष ,भूलोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश ,रसातल तथा अन्य भागो का विभाग होता है । सूर्य ही समस्त जीवो की आत्मा और इन्द्रियों का अधिष्ठाता हैं ॐ तत्सत !!!

स्कन्ध -६/अध्याय -९

श्री शुक देव जी कहते हैं -परीक्षित !आचार्य विश्वरूप के तीन मुख थे हमने सुना है एक मुख से वे सोम ,दूसरे से सुरा और तीसरे से अन्न खाते थे । शतक्रतु इन्द्र ने उनसे वैष्णवी विद्या प्राप्त की थी और असुरों को जीत लिया था। वे ऊँचे स्वर में बोल कर बड़े विनय के साथ देवताओं को आहुति दिया करते थे,वे छिप कर असुरों को भी आहुति देते थे । उन्किमता असुर कुल की थी इसलिए स्नेह वश वे असुरों को भी आहुति पहुँचाया करते थे ,देवराज इन्द्र ने देखा की यह तो धर्म की आड़ में कपट है और देवताओं का अपराध है । इन्द्र डर गए और क्रोध में भर कर उनके तीनो सीर काट लिए विश्वरूप का अन्न खाने वाला सर(मुख )तीतर ,सोम पीने वाला सिर -पपीहा और सुरा पान करने वाला सिर गौरैया हो गया । इन्द्र चाहते तो आचार्य के वध से लगा पाप दूर कर सकते थे पर उन्हों ने इसे स्वीकार किया और छूटने का कोई उपाय नही किया कुछ समय बाद सब के आमने अपनी ब्रम्ह हत्या को चार हिस्सों में बाँट कर शुद्धि के लिए पृथ्वी ,जल ,ब्रिक्ष और स्त्री को दे दिया । बदले में पृथ्वी ने यह वरदान लिया की जहाँ कही गड्ढा होगा वह अपनेआप भर जायगा -ऐसा ही हो, ब्रिक्षों ने माँगा जो हिस्सा कट जाय वो फ़िर जम जाए और स्त्रियों ने पुरूष संग माँगा ,इन्द्र ने स्वीकार किया जल ने माँगा की खर्चने पर भी बढ़ता रहूँ ।

विश्वरूप की मृत्यु के बाद उसके पिता त्वष्टा ने -"हे इन्द्र शत्रु !तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र से शीघ्र तुम अपने शत्रु को मार डालो " इस मंत्र से इन्द्र का शत्रु उत्पन्न करने के लिए हवन करने लगे !हवन समाप्त होने पर दक्छिनाग्नी से एक बड़ा भयानक दैत्य प्रकट हुआ वह रोज एक बाण के बराबर शरीर के चारों और से बढ़ता वह पहाड़ के आकर का काले रंग का ,उसके बाल तपे हुए तांबे के रंग के और नेत्र लाल दहकते हुए ,उसके वेग से पृथ्वी काप जाती जब वह मुख खोलता तो कन्दरा की तरह दिखाई देता लोग डर जाते उसके भयानक रूप को देखकर लोग भागने लगते ।

परीक्षीत !त्वष्टा के तमोगुणी पुत्र ने सारे लोकों को घेर लिया था !उसका नाम पड़ा वृत्तासुर !सारे देवता एक साथ युद्ध में उससे हार गए तब वे सब नारायण की शरण में आए ।

देवताओं ने भगवान् से प्रार्थना की - वायु ,आकाश ,अग्नी ,जल और पृथ्वी -ये पांचो भूत और इनसे इनसे बंधे हुए तीनो लोक उनके अधिपति ब्रम्हादी तथा हम सब देवता जिस काल से डर कर उसे पूजा -सामग्री की भेट दिया करते हैं वही काल ,भगवान् से भयभीत रहता है । इसलिए अब भगवान् ही हमारे रक्षक हैं । प्रभो ! यह सब देखकर आप विस्मित नही होते आप सरता पूर्णकाम ,सम एवं शांत हैं । जो आपको छोड़ कर किसी और की शरण लेता है वह मूर्ख है ।

पिछले कल्प में ,वैवस्त मनु जिनके विशाल सींग में नौका को बाँध कर प्रलय के संकट से बच गए थे ,वे ही मत्स्य भगवान् हम शरणागतों को ब्रित्रासुर के भय से हमें अवश्य बचायेंगे । पवन के थपेडो से उठी हुई उत्ताल तरंगो की गर्जना के कारण ब्रम्हा जी भगवान् के नाभी कमल से प्रलय कालीन जल में गिर गए थे ,असहाय थे जीकी कृपा से वे उस विपत्ती से बच सके वे ही भगवान् हमें हमें इस संकट से पार करें । उन्होंने अपनी माया से हमारी रचना की वे प्रभु जब देखते है की -देवता अपने शत्रुओं से बहुत पीडित हो रहे हैं ,तब वे माया का आश्रय ले कर अवतार लेते हैं और हमारी रक्षा करते हैं । वे प्रकृति और पुरूष रूप से विश्व की रचना करते हैं । हम सब उन्ही शरणागत वत्सल भगवान् श्री हरी की शरण ग्रहण करते हैं । वे अपने निज जन ,हम देवताओं का कल्याण करेंगे ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं -महराज !जब देवताओं ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की तब स्वयं शंख -चक्र -गदा -पद्मधारी भगवान् उनके सामने प्रकट हुए !भगवन के नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे ;उनके १६ पार्षद उनकी सेवा में लगे हुए थे । वे देखने में सब प्रकार से भगवान् के समान ही थे ,केवल उनके वक्षस्थल पर श्री वत्स का चिह्न और गले में कौस्तुभ मणि नही थी । परीक्षित !भगवान् का दर्शन पाकर सभी देवता आनंद से विह्वल हो गए ,धरती पर लोट कर साष्टांग दंडवत किया और फ़िर धीरे -धीरे उठ कर वे भगवान् की स्तुति करने लगे

देवताओं ने कहा -भगवन !यग्य में शक्ती तथा फल की सीमा निश्चित करने वाले काल आप हैं । यज्ञ में बिघ्न डालने वाले दैत्यों को आप छिन्न -भिन्न कर डालते हैं ,हम आपको नमस्कार करते हैं । विधाता !सत्व ,रज और तंम इन तीन गुणों के अनुसार जो उत्तम ,मध्यम और निकृष्ट गतियां प्राप्त होती हैं उसके नियामक आप हैं ।

भगवान् !नारायण !वासुदेव !आप जगत के कारण हैं ,जगत आपका रचा हुआ है ,आप ही पुरुषोत्तम है आपकी महिमा असीम है !आप परम मंगलमय ,कल्याण स्वरुप और दयालु है देवी लक्ष्मी के आप पति हैं । परमहंस जब आत्मलीन हो आपका चिंतन करते हैं तो अज्ञान- चला जाता है आप उनके ह्रदय में परमानन्द रूप में प्रकट हो जाते हैं ,हम आपको बार -बार नमस्कार करते हैं । भगवन आपको जानना असंभव है आपकी महिमा का गान तो वेद भी नही कर पाया । माया का सहारा ले कर आप अपने को छिपा लेते हैं उस समय आपमें सबकुछ हो सकता है आप करता और भोक्ता दोनों हो जाते है पर आपका शुद्ध रूप अनिर्वचनीय है भ्रान्ति बुद्धी से आप करता और भोक्ता दोनों दीखते है पर ज्ञानी को आप सच्चिदानन्द दीखते हैं आप सबकी अंतरात्मा हैं ,मधुसूदन ! आपकी अमृतमयी महिमा रस का अनंत समुद्र है जो इसकी एक बूंद पा जाता है उसमे आनंद की धारा बहने लगती है । आपको नमस्कार है !

स्तुति सुन कर भगवान् प्रसन्न हुए बोले -श्रेष्ठ देवताओं तुम्हारी उपासना से मैं प्रसन्न हूँ । मेरे प्रसन्न होने पर कोई वस्तु दुर्लभ नही रह जाती । तुम्हारा कल्याण हो तुम ऋषि शिरोमणि दधिची के पास जाओ उनसे उनका शरीर -जो उपासना के कारण बज्र हो गया है -मांग लो !दधिची ऋषि को शुद्ध ब्रम्ह ज्ञान है । अश्वनी कुमारों को घोडे के सिर से उपदेश दिया था इसलिए उनका नाम अश्व सिर भी है । अथर्व वेदी दधिची ने पहले पहल "नारायण कवच "का त्वष्टा को उपदेश किया था ,त्वष्टा ने विश्वरूप को दिया और उनसे तुम्हे मिला । दधिची ऋषि धर्म के मर्मज्ञ हैं वे तुम लोगों को अपने शरीर के अंग जरुर देंगे । तुम विश्वकर्मा से उनका श्रेष्ठ आयुध बनवा लेनादेवराज -उस शस्त्र के द्वारा तुम ब्रित्रासुर का सिर काट लोगे उसके मर जाने के बाद तुम तेज ,बल ,अस्त्र -शस्त्र से और संपत्ति से भरपूर हो जाओगे । यम मेरे शरणागत हो तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा । ॐ तत्सत !!

स्कन्ध -६/अध्याय -१६

राजा चित्रकेतु का पाँच वर्षीय पुत्र जिसे अन्य रानियों ने विष दे दिया ,वह मर गया रजा -रानी शोकाकुल विलाप कर रहे हैं महर्षि नारद ने उन्हें समझाया ।

श्री शुकदेव जी कहते है -परीक्षित !देवर्षि नारद ने मृत राजकुमार के जीवात्मा को स्वजनों के सामने बुलाकर कहा -जीवात्मन !तुम्हारा कल्याण हो । देखो तुम्हारे माता पिता और स्वजन वियोग से शोकाकुल हो रहे हैं इसलिए तुम अपने शरीर में आ जाओ और शेष जीवन इनके साथ रहो और सिंहासन को संभालो । जीवात्मा ने कहा -देवर्षि !मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता ,मनुष्य .पशु -पक्षी आदि योनियों में न जाने कितने जन्मो से भटक रहा हूँ हर जन्म में नए -नए माता -पिता बने ,सम्बन्ध बदलते रहे जैसे क्रय विक्रय की वस्तुए एक व्यापारी से दूसरे के पास जाती रहती है वैसे ही जीव भी विभिन्न योनियों और संबंधो में उत्पन्न होता रहता है ,जब तक सम्बन्ध रहता है ममता रहती है उसके बाद नही । जीव नित्य .अंहकार रहित ,समरूप होता है , यह ईश लीला के कारन अपने को प्रकट करता है । आत्मा तो साक्षी और स्वतंत्र है ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं -वह जीवात्मा इस प्रकार कह कर चला गया उसके माता -पिता यह बात सुनकर विस्मित रह गए उनका बंधन कट गया शोक जाता रहा । मृत देह का संस्कार किया गया । परीक्षित !जिन रानियों ने बच्चे को विष दिया था वे बाल हत्या से मुक्त होने के लिए यमुना जी के तट पर प्रायश्चित किया । राजा चित्रकेतु की विवेक बुद्धि जाग्रत हुई । नारद जी के उपदेश से राजा ने यमुना जी में स्नान किया और देवमुनी की पूजा की वंदना से प्रसन्न हो कर नारद जी ने उपदेश किया -

ॐ कार स्वरुप भगवान !आप वासुदेव ,प्रद्द्युन्म ,अनिरुद्ध और संकर्षण के रूप में मन ,बुद्धि ,चित्त और अंहकार के अधिष्ठाता हैं मैं आपके इस चतुर्भुज रूप को बार -बार प्रणाम करता हूँ । आप विशुद्ध विज्ञानं स्वरुप हैं आपकी मूर्ति परमानन्द देने वाली है आप अपने स्वरूप में परम शांत और पावन हैं आप को बारम्बार प्रणाम है आप माया पति हो कर भी माया जनित द्वेष आप को छू भी नही पाया है यह जगत आपसे उत्पनन हुआ और आप में ही विलीन होता है ,आप को मन बुद्धि ,वाणी और ज्ञान से नही जन जा सकता । ॐ कार स्वरुप ,महाप्रभावशाली .महाविभुतिपति भगवन् आपको बार-बार नमन !!!

श्री शुकदेवजी कहते है -परीक्षित !देवर्षि नारद अपने भक्त चित्रकेतु को इस विद्या का उपदेश दे कर अपने लोक को चले गए । देवर्षि की उपदिष्ट विद्या का उनके आज्ञा अनुसार सात दिन तक केवल जल पीकर बड़ी एकाग्रता के साथ अनुष्ठान किया सात दिन के पश्चात् राजा को "विद्याधरों "का अधिपत्य प्राप्त हुआ !इस विद्या के प्रभाव से इनका मन निर्मल हो गया ,अब वे शेष जी के चरणों के पास पहुँच गए देखा की शेष जी सिद्धेस्वरों के मंडल में विराजमान हैं ,उनके प्रत्येक अंग में सुंदर आभूषण शोभित हैं ,नेत्र रतनारे हैं । भगवान् शेष जी के दर्शन से उनके सारे पाप जल गए । उनका रोम -रोम खिल गया ,नेत्रों में अश्रु आ गये ह्रदय भर गया मुख से बोल नही निकल प् रहे थे । फ़िर विवेक से मन को समाहित किया और स्तुति की - अजित !जितेन्द्रिय संतो ने आपको पालिया है ,आपने अपने गुणों से उनको वशीभूत कर लिया है । प्रभु जो आपका भजन करता है वो सबकुछ पा लेता है । आप ही आदि अंत और मध्य हैं ,आप अनंत है । भगवत धर्म इतना महान और शुद्ध है की जो इसे धारण करता है उसमे विषय विकार नही आता ,दृष्टि सम हो जाती है ,पाप जल जाते हैं । हे सम्पूर्ण जगत के आत्मा ,हे सहस्त्रशीर्ष भगवान् मैं आपको नमन करता हूँ इस प्रकार चित्रकेतु ने अनंत भगवान् की स्तुति की ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित !चित्रकेतु की भक्ति से श्री शेष जी प्रसन्न होकर बोले -चित्रकेतु तुम मेरे दर्शन से सिद्ध हो चुके हो मैं ही शब्द ब्रम्ह (वेद )और परब्रम्ह हूँ । जाग्रत अवस्था में यह जगत परमेश्वर की माया है जब जीव मुझे भूल कर माया में खो जाता है तो संसार चक्र में फंस जाता है । यह मनुष्य की योनी ज्ञान और विज्ञानं का स्रोत है जो इसे पाकर परमात्मा को भूल जाता है उसका क्लेश नही मिटता । राजन !मानव तन का पाना तभी सार्थक है जब ब्रम्ह और आत्मा की एकता का अनुभव कर सको श्रद्धा भाव से शीघ्र ही सिद्ध हो जाओगे इस प्रकार कहकर श्री शेष जी अंतर्ध्यान हो गए । ॐ तत्सत् !!!

स्कंध -७/अध्याय -७

भक्त प्रह्लाद की कथा नारद जी ने युधिष्ठिर को सुनायी है !

नारद जी कहते है -युधिष्ठिर !जब दैत्य बालकों ने प्रह्लाद जी से पूछा तुम अभी इतने छोटे हो ,जब से जन्म लिए हो माँ के पास महल में हो तुम कैसे कहते हो की नारद जी से मिले हो ?

प्रह्लाद जी ने कहा -सुनो ,एक बार हमारे पिता हिरण्यकशिपू तपस्या करने मंदराचल गए ,तब इन्द्रादि देवो ने दानवो से युद्ध की तैयारी की उस युद्ध में दैत्य सेनापति अपने प्राण बचने को भाग गए । देवताओं ने राज महल को लूटा और मेरे माँ राजरानी कयाधू को इन्द्र बंदी बना कर लिए जा रहा था ,मार्ग में देवर्षि नारद ने देखा और इन्द्र से कहा यह अपराध है इसके गर्भ में नारायण का भक्त पल रहा है । देवराज यह सती - साध्वी परनारी है इसका तिरस्कार न करो ।

इन्द्र ने कहा -यह हिरण्यकशिपू के संतान की माँ बनेगी जो देव द्रोही हैमैं इसके बालक को मार कर इसे छोड़ दूँगा । नारद ने कहा तू यह नही कर सकेगा इसका बालक भगवत भक्त ,प्रेमी ,शुद्ध और महात्मा है तब इन्द्र ने इस भाव से की यह भागवत भक्त की माँ है ,मेरी माँ की प्रदक्षिणा कर के चले गए । इसके बाद नारद जी मेरी माता को अपने आश्रम में ले आए बोले -जब तक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे तब तक तुम निर्भय होकर रहो मरी माँ आश्रम पर रहने लगी ,भक्ति पूर्वक देवर्षि की सेवा करती । नारद जी ने मेरी माँ को भगवत धर्म का रहस्य बताया शुद्ध ज्ञान का उपदेश दिया । मुझे सब याद है नारद जी की कृपा से बुद्धि शुद्ध हो गई है । मेरी बात पर श्रद्धा करो दैत्य बालकों यह ज्ञान तुम भी पा सकते हो ।

शरीर के छ विकार होते हैं -जन्म लेना ,आस्तित्व की अनुभूति ,बृद्धि ,परिणाम ,क्षय और विनाष पर आत्मा अविनाशी ,नित्य ,शुद्ध ,असंग और आवरण रहित है । अध्यात्म तत्व को जानने वाला पुरूष आत्मप्राप्ति के उपायों द्वारा अपने शरीररूप क्षेत्र में ही ब्रह्म पद का साक्षातकार कर लेता है ।

प्रह्लाद : आचार्यों ने प्रकृति के तीन गुन बताये हैं -सत्व ,राज और तम् ,उनके विकार हैं दस इन्द्रियां एक मन और पञ्च महाभूत ,इन सब का समुदाय है शरीर । आत्मा जड़ और चेतन दोनों में है प् वह सबसे पृथक है । बुद्धि की भी तीन वृत्तियाँ हैं -जाग्रत ,स्वप्न और सुसुप्ति इन सबको निरर्थक कर्म से हटकर परमात्मा से जुड़ने का कर्म करना चाहिए । निष्काम प्रेम श्रेष्ठ है यह बात स्वयं भगवान् ने कही है दास भाव से सेवा ,गुणों का गान ,भजन और मूर्ति दर्शन से प्रेम हो जाता है इतना करते रहो एक दिन अनन्य प्रेम हो जाता है तब असीम आनंद से मन खिल उठता है फ़िर मन उसकी परम मनोहर छवि को नही भूलना चाहता और पुकारता है नारायण !तन्मय होकर ,आँखों में अश्रु लेकर वह भगवनमय हो जाता है तब उसके सारे बंधन कट जाते है इसी अवस्था को निर्वान कहते है । जीवन शुभ मय हो जाता है । सुनो असुर बालकों तुम भी अपने ह्रदय में नारायण को बिठाओ इसमे कोई विशेष परिश्रम भी नही है भोगों को पाने के लिए संसार में दौड़ भाग करना ,किसी को दुःख देना मूर्खता है स्वर्ग के सुख में भी दोष है निर्दोष केवल परमात्मा है उसमे मन लगाओ वो आनंद का समुद्र है उसे किसी वास्तु की आवश्यकता भी नही केवल श्रद्धा चाहिए । धर्म ,अर्थ ,काम सब उसके आधीन है जो उन चरण कमलो की सेवा करता है वह हमारे समान कल्याण का भाजन होता है ।

दैत्य बालकों !भगवान् को प्रसन्न करने के लिए ब्राम्हण होना ,ग्यानी होना ,दानी होना ,यग्य या बड़े -बड़े अनुष्ठान करना जरुरी नही ,भगवान् तो केवल निष्काम भक्ति से मिल जाता है । सब से प्रेम करो भगवान् की भक्ति के प्रभाव से कई दानव ,क्षुद्र ,और पापी उनकी कृपा को पा गए । ॐ तत्सत !!

स्कंध -८/अध्याय -९

श्री शुकदेव जी कहते है -परीक्षित !समुद्र मंथन से जब अमृत निकला तब सब असुर आपस में लड़ने लगे ,डाकू की तरह एक दूसरे के हाथ से अमृत का कलश छीन रहे थे । इसी बीच उन्होंने देखा की एक बड़ी सुंदर स्त्री उनकी ओर चली आ रही है । उसके अनुपम सौन्दर्य को ,उसकी अद्भुत छटा को देख कर सारे असुर लड़ना भूलकर उसके पास दौड़ आए ,सब काम मोहित हो गए ,पूछा - हे कमल नयनी !तुम कौन हो ?कहाँ से आ रही हो ?क्या करना चाहती हो ? सुंदरी तुम किसकी कन्या हो ?तुम्हे देखकर हमारे मन खलबली मच गई है । हम समझते हैं -देवता ,दैत्य ,सिद्ध ,गन्धर्व ,चारण और लोकपालों ने भी अब तक तुम्हे नही छुआ होगा । सुंदरी !विधाता ने अवश्य दया करके शरीर धारियों की इन्द्रियों एवं मन को तृप्त करने के लिए तुम्हे यहाँ भेजा है । मानिनी !हमलोग एक ही जाती के है और एक ही वस्तु हम सब चाह रहे है इसलिए हम में वैर हो गया है । सुंदरी तुम हमारा झगडा मिटा दो हम सभी कश्यप जी के पुत्र है इस नाते सगे भाई है । हमने अमृत के लिए बड़ा पुरुषार्थ किया है । तुम न्याय के अनुसार इसे बाँट दो ,हमारा झगडा ख़तम कर दो । असुरों ने जब इस प्रकार प्रार्थना की तब स्त्री वेश धारी नारायण ने हंसकर तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते हुए कहा। श्री भगवान् ने कहा - आप महर्षि कश्यप के पुत्र है और मैं कुलटा नारी ,आप मुझ पर न्याय का भार क्यों दे रहे हैं ? बुद्धिमान पुरूष स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों का विश्वास नही करते ,इनकी मित्रता स्थायी नही होती ।

श्री शुकदेव जी कहते है -परीक्षित !मोहिनी की परिहास भरी वाणी से दैत्यों के मन में और भी विश्वास हो गया । उन लोंगो ने अमृत का कलश मोहिनी के हाथो में दे दिया । भगवान् ने अमृत कलश लेकर हँसते हुए मीठी वाणी से कहा - मैं उचित ,अनुचित जो कुछ भी करू वह सब तुम लोंगो को स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ । मोहिनी की मीठी बात सुनकर सब ने एक स्वर से कहा "स्वीकार है "

इसके बाद एक दिन का उपवास करके सबने स्नान किया ,हवन किया ,गौ ,ब्राम्हण को चारा तथा अन्न -धन का दान दिया । सबने रूचि के अनुसार नये वस्त्र धारण किए सुंदर आभूषण पहने और कुशासन जिसका अगला हिस्सा पूर्व की ओर था ,बैठ गए । जब देव और दैत्य दोनों ही दीप ,पुष्प और गंध से सजे भब्य भवन में पूर्व की और मुख करके बैठ गए तब हाथ में अमृत कलश ले कर मोहिनी सभा मंडप में आई वह बड़ी सुंदर रत्न जडी साड़ी पहने थी वह गज -गामिनी अपूर्व सुंदरी ,कलश के सामान स्तनों वाली ,उसके स्वर्ण नुपुर अपनी झंकार से पूरे सभा मंडप को मुखरित कर रहे थे । उसके कपोल ,नासिका मुख बड़े ही सुंदर थे । भगवान् मोहिनी रूप में लक्ष्मी जी की श्रेष्ठ सखी लग रहे थे । उनकी मुस्कान भरी चितवन से सब मोहित हो गए । अब भगवन ने सोच इनको अमृत पिलाना ,सर्पों को दूध पिलाने से बड़ा अपराध है ,अन्याय है ये सब क्रूर स्वभाव वाले हैं । भगवान् कलश ले कर दैत्यों के पास गए उसी समय उनका आँचल कुछ खिसक गया और वे कटाक्ष से मोहित करके देवताओं को अमृत पिलाने लगे । परीक्षित !असुरों को मोहिनी से स्नेह हो गया वे स्त्री से लड़ने में अपनी निंदा समझते थे इसलिए चुपचाप बैठे रहे वे डर भी रहे थे की ये सुंदरी हमसे रूठ न जाय ।

जिस समय भगवन देवताओं को अमृत पिला रहे थे उसी समय राहू दैत्य देवताओं का वेश बना कर ,देवताओं की पंक्ति में बैठ गया उसने भी अमृत पी लिया ,परन्तु सूर्य और चंद्रमा ने जान लिया और बता दिया भगवन ने उसी वक्त चक्र से रहू का सर काट दिया धड नीचे गिर गया लेकिन सिर अमर हो गया क्यों की वह अमृत के संसर्ग में आ गया था । ब्रम्हा जी ने उसे ग्रह बना दिया । वही रहू पूर्णिमा और अमावस्या को बदला लेने के लिए चंद्रमा और सूर्य पर आक्रमण करता है देवताओं ने अमृत पी लिया दैत्यों के सामने ही भगवन ने मोहिनी रूप को त्याग कर अपने रूप को प्रकट किया ।

परीक्षित !देखो -देवता और दैत्य दोनों ने एक समय एक स्थान पर ,एक प्रयोजन एक ही वास्तु के लिए किया ,कर्म भी एक ही प्रकार का किया था परन्तु फल में बहुत बड़ा भेद हो गया !देवताओं ने सुगमता से अपने परिश्रम का फल अमृत पा लिया और दैत्य देखते रहे जानते हो क्यों -? क्यों की देवताओं ने भगवान् के शरणागत हो कर कर्म किया वे उनकी चरण राज को नमन किया और दैत्य देव के विमुख हो कर कर्म किया इसलिए परिश्रम करने पर भी वे फल नही पा सके । राजन प्राणों में हरी को बिठा कर ,उनको अर्पित करके जो कुछ किया जाता है वह सब के लिए फल दाई होता है जैसे वृक्ष की जड़ में पानी देने से टहनियां ,पत्ते ,डालियाँ सब सींच जाते हैं और समय आने पर फल भी मिलता है । वैसे ही भगवन के लिए जो करोगे वह पूरे परिवार को सुखी बना देगा ॐ तत्सत !!

स्कन्ध -८/अध्याय -१५

परीक्षित ने शुकदेव से पूछा -भगवान् श्री हरी सब के स्वामी हैं फ़िर उन्होंने दीन की भांति रजा बलि से तीन पग भूमि क्यों मांगी ? मिल जाने पर उनको बाँधा क्यों ?

शुकदेव जी ने कहा -परीक्षित !जब इन्द्र ने बलि को पराजित करके उसकी सम्पत्ति छीन ली और प्राण भी ले लिया तो असुर गुरु शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से उसे जीवित कर लिया ,तब राजा बलि ने अपना सर्वस्व गुरु के चरणों में अर्पित कर दिया और तन ,मन से ब्राम्हणों की सेवा करने लगे । भृगु वंशी ब्राम्हण प्रसन्न हुए और स्वर्ग पर अधिकार दिलाने वाला विश्वजीत यग्य बलि से करवाया । हविश्यों के द्वारा जब अग्निदेव को हविष्यान्न दिया तब अग्नि में से एक दिव्य सोने की चादर से बना हुआ रथ निकला उसमे सोने का धनुष ,अक्षय तरकश ,दिव्य कवच और हरे रंग के घोडे रथ के थे । उनके दादा प्रह्लाद ने उनको कभी न कुम्हलाने वाली माला दी राजा बलि ने सारे दिव्य अस्त्रों को धारण किया असुर सेना को ले कर ऐश्वर्य से भरे राजा रथ पर सवार हुए क्रोध से प्रज्वलित उनके नेत्र ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश पी जायंगे अंतरीक्ष को कंपाते हुए बलि ने देवताओं की राजधानी अमरावती पर चढाई कर दी ।

अमरावती की शोभा अपूर्व थी ,सोने के महल ऊँचे परकोटे ,सुगन्धित सफ़ेद धुँआ। इस नगरी का निर्माण विश्वकर्मा ने किया था अमरावती की स्त्रियाँ सर्वदा सोलह वर्ष की सी रहती हैं ,हरदम संगीत बजता रहता है वहा की शोभा अपूर्व है , राजा बलि ने सेना सहित पुरी अमरावती को घेर लिया भय को संचार करने वाले शंख को बजाया । इन्द्र ने देखा बलि ने युद्ध की पूरी तयारी की है अतः वे अपने गुरु वृहस्पति के पास गए -बोले भगवन मेरे शत्रु बलि ने इस बार बड़ी तैयारी की है पता नही कौन सी शक्ति से वह इतना बढ़ा है इस समय उसके प्रलय को कोई नही रोक सकता । लगता है दसों दिशाओं को भस्म कर देंगे । इसके शरीर ,मन और इन्द्रियों में इतना तेज और बल कहा से आ गया । देव गुरु वृहस्पति जी ने कहा -इन्द्र मैं बलि की उन्नति का कारण जानता हूँ ,ब्र्म्हावादी भृगु वंशियों ने इसे महान तेज और बल दिया है ,अब इसे केवल सर्वशक्तिमान श्री हरी ही हरा सकते हैं -तुमलोग स्वर्ग को छोड़ कर कही और छिप जाओ और भाग्य के चक्र के बदलने तक प्रतीक्षा करो । जब यह उन्ही ब्राम्हणों का तिरस्कार करेगा तभी इसका नाश होगा ।

राजा बलि ने अमरावती पुरी पर अपना अधिकार कर लिया तीनो लोकों को जीत लिया तब शिष्य प्रेमी भृगु वंशियों ने बलि से सौ अश्वमेध यग्य करवाए ,राजा की कीर्ति -कौमुदी दसो दिशाओं में फ़ैल गई । ब्राम्हण देवता की प्राप्त कृपा से बलि बड़ी उदारता से राज्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे । ॐ तत्सत !

स्कन्ध -९/अध्याय -४

शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित !मनु पुत्र नभग के पुत्र का नाम था नाभाग । जब वे दीर्घ काल की तपस्या के बाद के बाद लौटे तब बड़े भाइयों ने नाभाग को हिस्से में केवल पिता को दिया (संपत्ति को बड़े भाइयों ने आपस में बाँट ली )नाभाग ने पिता से कहा मेरे हिस्से में आप हैं ,पिता ने कहा तुम इनकी बात न मानो ।

पिता ने कहा -अंगिरस -गोत्र के ब्राम्हण बहुत बड़ा यग्य कर रहे हैं वे छठे दिन एक भूल कर देते हैं ,पुत्र वह जाओ उन्हें दो सूत्र बता दो जब वे जाने लगेंगे तो यग्य से बचा हुआ धन तुम्हे दे देंगे नाभाग ने ऐसा ही किया यग्य का बचा हुआ बहुत सा धन ऋषियों ने नाभाग को दिया और स्वर्ग चले गये । जब नाभाग उस धन को लेने लगे तब उत्तर दिशा से एक काले रंग का पुरूष आया ,कहा -यह धन मेरा है । नाभाग बोले ऋषियों ने यह धन मुझे दिया है ,काले रंग के पुरूष ने कहा -चाको इस विषय में तुम्हारे पिता से बात करते हैं । नाभाग ने पिता से प्रश्न किया पिता ने कहा -दक्ष यग्य में यह निश्चय हुआ था की यग्य भूमि में जो बचता है वह रुद्र देव का है इसलिए यह धन महादेव का है ,नाभाग ने उस काले पुरूष से कहा पिता ने कहा है यह धन आपका है ,भगवन मुझसे अपराध हुआ मुझे क्षमा कर दे । तब रुद्र ने कहा तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी सत्य कहा मैं तुम्हे ब्रम्ह तत्व का ज्ञान और यह सारा धन देता हूँ । इतना कह कर भगवन अंतर्धान हो गए । जो मनुष्य प्रथ और सायं काल इसे पढता है वह ज्ञानी होता है । नाभाग के पुत्र हुए अम्बरीश वे भगवान् के परम भक्त थे ,उदार और धर्मात्मा थे जो शाप कभी कही नही रोका जा सका वो अम्बरीश को छू भी नही सका ।

राजा परीक्षित ने कहा -भगवान् मैं उनके चरित्र को सुनना चाहता हूँ ,शुकदेव ने सुनाया -अम्बरीश पृथ्वी के सातो दीपो के राजा थे अतुलनीय ऐश्वर्य के स्वामी थे परम दुर्लभ वस्तुए उनको प्राप्त थी वे भगवान श्री कृष्ण के ,ब्राम्हणों और संतों के भक्त थे .वे वाणी से भगवान् का गुन गान हाथों से उनकी सेवा ,कानो से कथा का श्रवण और पैरों से उनके धाम की यात्रा किया करते थे । उनका सब कुछ भगवान् को अर्पित था वे संतों की आज्ञानुसार शासन करते ,उनकी प्रजा बहुत सुखी थी । उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनकी रक्षा में सुदर्शन चक्र को लगा दिया । एक बार राजा ने द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत करने का नियम लिया व्रत की समाप्ति पर कार्तिक मॉस में तीन दिन का उपवास किया यमुना जी में स्नान कर मधुवन में श्री कृष्ण की पूजा की महाभिषेक विधि से पूजा की वस्त्र ,आभूषण ,चदन ,माला अर्ध्य आदि से ब्राम्हणों को दान दिया । उसी समय ऋषि दुर्वासा आए राजा ने आसन दे स्वागत किया भोजन का आग्रह किया ,दुर्वासा स्नान करने यमुना जी गए ,इधर द्वादशी घड़ी भर शेष रह गई थी राजा सोचने लगे अगर पारण न करू तो व्रत भंग होगा अतिथि को बिना भोजन कराए पारण करू तो भी व्रत भंग होगा उन्होंने ब्राम्हणों से विचार करके भगवान् का चरणोदक ले लिया । स्नान से निवृत्त हो कर जब दुर्वासा आए तो यह जानकर की राजा ने पारण कर लिया है बहुत क्रोधित हुए की मुझे खिलाये बिना ही तुमने पारण कर लिया "इसका फल चखता हूँ "उन्होंने अपनी जटाओं से एक बाल उखाडा और राजा को मार डालने के लिए कृत्या पैदा की । कृत्या तलवार ले कर अम्बरीश पर टूट पड़ी राजा तनिक भी विचलित नही हुए ,सुदर्शन चक्र ने कृत्या को भस्म कर दिया अब दुर्वासा की और बढ़ा वे अपने प्राण बचाने के लिये तीनो लोक का चक्कर लगा लिए पर सुदर्शन ने पीछा नही छोड़ा वे ब्रम्हा के पास गए बोले मेरी रक्षा कीजिये । ब्रम्हा जी बोले श्री हरी के द्रोही को बचाने का सामर्थ्य मुझमे नही है ,तुम शंकर जी के पास जाओ दुर्वासा कैलाश पर गए महादेव से बोले -मैं आपकी शरण में हूँ । शिव जी ने कहा हम जैसे हजारों उनके चक्कर काटते हैं यह चक्र विश्वेश्वर का है मैं कुछ नही कर सकता तुम उन्ही की शरण में जाओ ,दुर्वासा भगवन के धाम वैकुण्ठ में गये ; कांपते हुए चरणों में गिर पड़े बोले हे अनंत ,विश्व विधाता मेरी रक्षा कीजिये । मैं आपका प्रभाव नही जानता था मैं आपके भक्त का अपराधी हूँ ।

भगवान् बोले -दुर्वासा जी !मैं सर्वथा भक्त के आधीन हूँ । भक्तों ने मेरा ह्रदय अपने हाथ में रखा है जो सब कुछ छोड़ कर केवल मेरी शरण में है उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूँ । मेरे भक्त मेरे ह्रदय हैं और मैं भक्तों का ह्रदय हूँ । आप उसी भक्त के पास जाइए । आपका कल्याण हो । दुर्वासा लौट कर अम्बरीश के पास आए बोले मुझे इस चक्र से बचाओ राजा ने चक्र की स्तुति की और वह शांत हो गया दुर्वासा की रक्षा हुई । ॐ तत्सत !

स्कन्ध -९/अध्याय -१०

परम यशस्वी राजा रघु के पुत्र अज और अज के पुत्र महाराज दशरथ हुए । देवताओं की प्रार्थना से साक्षात् परब्रम्ह श्रीहरी के अंशांश से चार रूप धारण करके राजा दशरथ के पुत्र -राम ,लक्ष्मण ,भरत ,शत्रुघ्न हुए । श्री राम पिता के वचन की रक्षा के लिए राज्य छोड़ ,सीता और लक्ष्मण के साथ चौदह वर्ष के लिए वन को गए । विश्वामित्र के यग्य की रक्षा हेतु राम-लक्ष्मण ने मारीच .ताड़का आदि कई राक्षसों को मारा ,जनक पुर में सीता स्वयम्बर में शिव धनुष को भंग कर सीता को प्राप्त किया श्री लक्ष्मी जी ही सीता नाम से जनक पुर में अवतीर्ण हुई परशुराम जिन्होंने २१ बार प्रथ्वी को राजवंश से विहीन किया ,भगवान् ने उनके गर्व को तोडा । वनवास काल में शूर्पनखा जो राक्षसी थी उसकी नाक को काटकर विरूप किया । श्री सीता जी के रूप और गुणों को सुनकर रावण ने उनका हरण कर लिया । राम सीता की खोज में वन -वन भटके जटायु का संस्कार किया ,कबंध का संहार किया । हनुमान जी से और सुग्रीव से मिले बलि का वध किया सुग्रीव राजा और अंगद युवराज बने । परीक्षित !शिव जिनकी वंदना करते हैं वे श्री राम मनुष्य लीला करते हुए समुद्र तट पर पहुंचे । हनुमान जी ने पता लगाया की -श्री सीता जी लंका की अशोक वाटिका में हैं । राम ने समुद्र से विनती की मुझे मार्ग दो तब समुद्र शरीर धारण कर रत्नों का थाल लेकर राम की शरण में आया बोला दयानिधान मैं सुख जाऊँगा तो मुझमे रहने वाले जीव मर जायंगे आप मेरे ऊपर पुल बना लीजिये और पार चले जाइए आप का यश बढेगा । भगवान् ने नल -नील की सहायता से बाँध बनाया सेना सहित लंका पर आक्रमण किया रावण पुरे वंश सहित मारा गया । राम जी ने विभीषण को राजा बनाया सीता ,लक्ष्मण ,हनुमान और सुग्रीव के साथ श्री राम अयोध्या के लिए विमान पर सवार हुए देवताओं ने पुष्पवर्षा की ,ब्रम्हा जी ने स्तुति की ।

इधर भारत जी नगर से बाहर विरक्त जीवन जी रहे थे ,सिंहासन पर श्री राम की पादुका थी ,भारत जी पत्तों के विस्तर पर सोते , कन्द्द मूल खाते ,वल्कल वस्त्र पहन कर चौदह साल रहे श्री राम को जब यह मालूम हुआ तो उनका ह्रदय भर आया वे पहले भरत से मिले राम -भरत गले लग कर एक दूसरे को आंसुओं से भिगो दिया । सबने नगर में प्रवेश किया नगर वासिओं ने पुष्प वर्ष की दिए जलाये हर तरह से राजा राम का स्वागत हुआ भगवान् ने गुरुजनों को प्रणाम किया । महल में आए माताओं से मिले सबका शोक मिट गया । राम राजा बने श्री सीता जी महारानी ,राम के राज्य में सबको सब प्रकार से सुख था । ॐ तत्सत !

स्कंध -१० /अध्याय -६

शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित !नन्द ने मथुरा को छोड़ दिया क्यो की वह बहुत प्रकार के उत्पात हो रहे थे वे अब ग्वाल बालो के साथ गोकुल में रहने लगे । कंस के द्बारा भेजी गई पूतना जो बच्चों को खोज -खोज कर मार डालती थी एक दिन वह सुंदर नारी का वेश बना कर गोकुल में आई गोपियों ने उसके रूप और वेश को देख कर उसे कुलीन मान कर आदर किया वह अनायास नन्द महल में चली आई सोये हुए बाल कृष्ण को गोंद में उठा लिया माता देखती रही रोक न सकी । पूतना भगवान् को दूध पिलाने लगी उसने अपने स्तन में विष लगा कर आई थी भगवान् को क्रोध आया वे दूध के साथ उसके प्राण भी पीने लगे वह छटपटाने लगी उसके प्राण निकल गए उसका राक्षसी वेश प्रकट हो गया । एक भयंकर गर्जना के साथ वह भूमि पर गिर पड़ी उसका रूप डरावना था बाल कृष्ण उसकी छाती पर खेल रहे थे ब्रिजवासी घबराए हुए आए माता ने दौड़ कर श्री कृष्ण को ले लिया ,अनिष्ट से बचाने के लिए गाय की पूछ का स्पर्श कराया ,गो -धूलि लगया और बोली -अजन्मा भगवान् पैरों की मनिमान घुटनों की ,यग्य पुरूष जांघों की ,अच्च्युत कमर की ,हयग्रीव पेट की ,केशव ह्रदय की ,ईश वक्षस्थल की ,सूर्य कंठ की ,विष्णु भुजा की ,इश्वर सिर की ,भगवान् परम पुरूष तेरी सब ओर से रक्षा करें । ऋषिकेश भगवान् इन्द्रियों की और नारायण तेरे प्राणों की रक्षा करे । योगेश्वर मन की परमात्मा अहंकार की रक्षा करें ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित सब भगवान् के प्रेम पाश में बंधे हैं माता ने दूध पिलाया भगवान् को पालने में सुला दिया ,इधर नन्द बाबा मथुरा से लौटे तो सब कुछ जाना पूतना के भयंकर शरीर को देख कर चकित रह गए । उसे नगर से बाहर ले जाकर जला दिया ब्रजवासियों ने ,जलने पर उसके शरीर से खुशबू आ रही थी -क्योकि उसे भगवन का स्पर्श मिल गया था । वह भगवान् को दूध पिलाने आई थी इसलिए परम दयालु प्रभु ने उसे परम गति दी । मृत्यु के मुख से बचे अपने लाला को पाकर नन्द और यशोदा बहुत आनंद मना रहे थे गोपियाँ मंगल गा रही थी गोप नाच रहे थे । ॐ तत्सत !

स्कन्ध -१०/अध्याय -१७

यह "कालिय "नाम के विषधर की कथा है । कालिय नाग की माँ कद्रू और गरुण जी की माँ विनता में परस्पर वैर था इसके कारण गरुण जी को जो सर्प मिलता वे खा जाते ब्याकुल हो सब सर्प ब्रम्हा जी के पास गए ,ब्रम्हा जी ने कहा प्रत्येक अमावस्या को बारी बारी से एक सर्प परिवार गरुण जी एक सर्प की बली देगा । एक निर्दिष्ट ब्रिक्ष के नीचे गरुण जी को अमावस्या के दिन बली दी जाती । कद्रू का पुत्र कालिय को विष के बल का घमंड था वह गरुण का तिरस्कार करके बली देने के बजाय दूसरे सर्प जो बली देते उसे भी खा जाता ।

परीक्षित !भगवान् के प्यारे पार्षद ,शक्तिशाली गरुण जी को जब यह बात पता चली तो वे कालिय को मारने के लिए टूट पड़े । कालिय भी गरुण जी को दंस लिया और यमुना जी में छिप गया । एक दिन भूख से व्याकुल गरुण जी ने मत्स्यराज को खा लिया ,मछलियाँ बहुत दुखी हुयी । मुनि सौभारी ने शाप दिया गरुण जी को की -"फ़िर कभी मछलियों को खाओगे तो प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा " यह बात कालिय जान गया ,वह निर्भय हो कर यमुना में रहने लगा । यमुना जी के तट पर भगवान् गायों को चराते और ग्वाकों के साथ अनेक क्रीडाएं करते यमुना जी में एक स्थान जहा नाग का विष हरदम उबलता रहता था भगवान् ने देखा की यमुना जी का जल विषैला हो रहा है तब भगवान् यमुना जी में कूद गए । कालिय ने देखा की एक सुंदर ,कोमल ,सलोना बालक विषैले जलकुंड में क्रीडा कर रहा है वह चकित रह गया उसने भगवान् को नाथ लिया ,भगवान् ने अपना आकर बढाया और कूद कर कालिय के फन पर चढ़ गए और तांडव करने लगे ,उसके फनों को कुचल दिया रक्त की धारा बह चली ,उसका अंग अंग चूर हो गया ,मूर्छा आगई अब उसे नारायण की याद आई विनीत हुआ मुझ पर कृपा करे नाग पत्नियाँ भी स्तुति करने लगी श्री कृष्ण ने कहा -सर्प तू यहाँ से चला जा । तो गरुण के डर से यहाँ रह रहा है ,वे अब तुझे नही मारेंगे क्योंकि अब तुम्हारे शरीर पर मेरे चरण चिन्ह पड़ गये हैं नाग ने भगवान् की पूजा की और रमणीक दीप पर चला गया । यमुना जी का जल निर्मल हो गया ब्रजवासी आनंदित हुए उस रात सब लोग यमुना के तट पर सोये अर्ध रात्री को अचानक वन में आग लग गयी ब्रजवासी आग में घिरे प्रार्थना कर रहे थे हे भगवान् मुझे बचाओ । भगवान् उस आग को पी गये नन्द -यशोदा सब कुशल है देख कर हर्षित हुए । सबने प्रार्थना की -हे अनंत हम आपकी शरण में हैं । ॐ तत्सत् !

स्कन्ध-१० /अध्याय -३०

यमुना के किनारे कुमुदनी की सुवासित वायु आनंद को बढ़ा रही थी । शीतल चांदनी पूर्णिमा की छटा ,भगवान् बैजन्ती की माला पहने गोपियों को प्रेम की सीमा तक ले गये । सबको मान हो गया की भगवान् तो केवल मेरे हैं इसी बीच प्रभु अंतर्धान हो गये ।

शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित !गोपियों का ह्रदय विरह ज्वाला से जलने लगा वे वृक्षों लताओं ,हिरनों और पक्षियों से कृष्ण का पता पूछ रही हैं । उनकी गजराज की चाल ,तिरछी चितवन ,प्रेम भरी मुस्कान ,वल्गुवाक्य जो गोपियों के मन को हर लेते हैं । गोपियन संग बीते पलों के साक्षी कुंजो से पीपल ,पाकर ,बरगद से पूछती हैं तुमने मेरे श्याम को देखा । अशोक ,नागकेसर ,पुन्नाग और चम्पा क्या तुमने श्याम सुंदर को देखा जिनकी मुस्कान मुनियों के मन को हर लेती है । तुलसी तुम तो सबका कल्याण करती हो भगवान् तुमसे और तुम उनसे बहुत प्रेम करती हो तुम्हारी माला वे कभी नही उतारते क्या तुने देखा ? प्यारी मालती ,जूही .मल्लिके क्या कृष्ण इधर आए थे ? रसाल ,प्रियाल ,कटहल ,कचनार ,जामुन ,आक ,बेल ,मौलसरी ,आम ,कदम्ब और नीम तुम तो उपकार करते हो बताओ हमारे प्रियतम किधर गये उनके बिना हमारा जीवन सुना हो गया है । लताओं तुमने देखा है ?उनके अंग अंग से सौन्दर्य की धारा बहती है । इस प्रकार कातर हो कर गोपियाँ कृष्ण को खोज रही हैं उनकी एक एक लीला को याद कर रही हैं -कोई गोपी कृष्ण का वेश बनाती है ,कोई उनकी तरह चलती है कोई कालिय नाग बनती है तो दूसरी सिर पर चढ़ कर कहती है -रे सर्प तू यहाँ से चला जा । भगवान् को खोजते हुए एक स्थान पर गोपियों ने चरण चिन्ह देखा बोली ये चरण नन्द -नंदन के है इसमे ध्वजा ,कमल ,वज्र ,अंकुश और यव के चिन्ह है आगे गई तो एक गोपी के चरण चिन्ह भी दिखे ,व्याकुल हो गईं की ये किस के चिन्ह है जिसे भगवान् का संग मिल गया वह अवश्य श्री कृष्ण की आराधिका होगी । खोजते हुए आगे बढ़ी तो राधा विलाप करती हुई मिली । बताया -भगवान् मुझे यहाँ ले आए मैंने समझा मैं ही श्रेष्ठ हूँ मतवाली हो गई कुछ देर में बोली भगवान् मुझसे अब नही चला जा रहा मुझे अपने कंधे पर बिठा लो जहा चाहे ले चलो ,श्याम सुंदर ने कहा मेरे कंधे पर चढ़ जाओ । ज्यों ही उनके कंधे पर चढ़ने चली - अंतर्धान हो गये अब पछता रही हूँ । हे नाथ मैं तुम्हारी दीन हीन दासी हूँ मुझे दर्शन दो मैंने आप का अपमान किया है गोपियाँ खोजती हुई घोर जगल में गई भगवान् को न पाकर लौट आई -यमुना की रमन रेती पर सब मिलकर कृष्ण के गुणों का गान करने लगी ,पुकारने लगी । ॐ तत्सत् !

स्कन्ध -१० /अध्याय -४२

श्री शुकदेव जी कहते -परीक्षित श्री कृष्ण मथुरा पुरी में आए हैं बलराम के साथ नगर भ्रमण कर रहे हैं जो उनको देख लेता है वो उनके पीछे लग जाता है उनकी रूप माधुरी में लिपटा चला आता है ,मथुरा वासियों का एक झुंड पीछे चल रहा है । मार्ग में एक कुबरी स्त्री मिली चंदन लेकर जा रही थी भगवान् ने कहा यह चन्दन मुझे दो तुम्हारा कल्याण होगा (प्रभु उसका भाग्य सवारने के लिए उस पर कृपा की )

कुब्जा बोली -हे परम सुंदर !मैं कंस की दासी हूँ त्रिवक्रा (कुब्जा )। यह चन्दन और अंगराग उसके लिए ले जा रही थी पर इसके उत्तम पात्र आप हैं ,कुब्जा ने अपना ह्रदय न्योछावर कर दिया । भगवान् का मंद हास्य ,चारु चितवन देख कर वह अपनी सुध खो गई ,उसने भगवान् को चंदन लगाया श्री कृष्ण उस पर प्रसन्न हो गए तीन जगह से टेढी कुब्जा के पंजो पर भगवान् ने अपना चरण रखा और हाथ उठा कर दो उँगलियों को गले पर लगा कर उसके शरीर को थोड़ा सा उठा दिया ,इतना करते ही उसके सारे अंग सीधे हो गए वो रूपवती बन गई । अब उसके मन में भगवान् को पाने की कामना जगी बोली -वीर शिरोमणि !हमारे घर चलिए ,मुझपर प्रसन्न होइए ,पुरुषोत्तम मैं आपको नही छोड़ सकती । भगवान् आने का वादा करके चले । अब वे मथुरा की रंग शाला में पहुंचे वहा एक अद्भुत धनुष देखा उस में कई धनुष लगे थे वह बहुमूल्य अलंकारों से सजा था ,उसकी पूजा हुई थी और सैनिक उसकी रखवाली कर रहे थे सैनिको के रोकने पर भी उस धनुष को भगवान् ने उठा लिया डोरी चढा कर खीचा ,एक भयंकर आवज के साथ धनुष टूट गया । सैनिको ने भगवान् को घेरने व् पकड़ने की कोशिश की भगवान् ने सब का संघार किया । यह बात जब कंस को पता चली तो वह डर गया । इधर श्री कृष्ण अपने छकडे पर जो नगर के बाहर था ,वहा रात को विश्राम किया नगर वासी उनके रूप और पराक्रम को देख कर निश्चय किया की ये दोनों वीर श्रेष्ठ देवता हैं । अब कंस को मृत्यु सूचक अपशकुन होने लगे , प्रात उसने रंग शाला का आयोजन किया उसमे बड़े -बड़े वीर अखाडे में बुलाया और कंस एक मंच पर बैठा वह बहुत डरा हुआ था । ॐ तत्सत् !

स्कन्ध -१० /अध्याय -५४

शिशुपाल के साथी राजाओं की और रुक्मी की हार तथा श्री कृष्ण -रुक्मिणी -विवाह

श्री शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित !भगवन की माया के समान ही मोहित कर देने वाली रुकमनी जी के अपूर्व सोंदर्य को देख बड़े -बड़े यशस्वी वीर मोहित हो गए । रुकमनी जी उत्सव यात्रा के बहाने मंद -मंद गति से चलकर भगवान् श्री कृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा करती हुईबहुत धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी ,तभी उन्हें श्री कृष्ण के दर्शन हुए । भगवान् ने समस्त शत्रुओं के देखते -देखते रुक्मनिजी को रथ पर बैठा लिया जिस पर गरुण जी का ध्वज लगा था भगवान् रुकमनी जी को ले कर यदुवंशियों के साथ चले सारे राजा देखते रहे । हमें धिक्कार है यह कहते हुए क्रोध से आग बबूला होकर सेना सहित राजा लोग धनुष लेकर भगवान् के पीछे दौडे ।

परीक्षित कहते हैं -राजन जब यदु वंशियों ने देखा की शत्रु दल हम पर चढा आरहा है तो उन लोगो ने पलट कर युद्ध किया और देखते -देखते जरा संध की सारी सेना को भगवान् ने तहस -नहस कर दिया उनके वानो से रथ , घोडे ,हाथी ,गदा और शत्रुओं के सीर कट कट कर गिरने लगे । जरा संध और बचे हुए राजा पीठ दिखा कर भागे । शिशुपाल भी अपनी भावी पत्नी के छीन लिए जाने के कारण बहुत दुखी था । जरासंध ने उसे समझाया -शिशुपाल उदासी छोड़ दो ,अनुकूलता और प्रतिकूलता स्थिर नही रहती । यह जीवन भगवान् के इक्षा के अनुसार चलता है ,मुझे देखो -श्री कृष्ण ने मुझे सत्रह बार हराया है मैं केवल एक बार उनको हरा पाया ,अठारहवी बार फ़िर भी मैं शोक नही करता । मैं जानता हूँ काल ही इस जगत को चलने वाला है आज यदुवंशियों की थोडी सी सेना ने हमें हरा दिया आज काल उनके अनुकूल है । इस प्रकार सांत्वना पाकर बचे हुए राजा अपने -अपने नगर को चले गए। पर रुक्मिणी जी का भाई रुक्मी जो श्री कृष्ण से बहुत द्वेष रखता था वह नही चाहता था की श्री कृष्ण इस प्रकार मेरी बहन को हरण कर ले जाय । शुकदेव जी कहते हैं -रुक्मी की बुद्धि भ्रष्ट हो गई वह भगवान् को नही जानता था बोला आज मैं तुझे यही सुला दूंगा अगर मैं तुझे न मार सका तो लौट कर अपने राज्य "कुन्दीन पुर "नही जाऊँगा । भगवान् मुस्कराए और उसके सारे अस्त्र -शस्त्र ,रथ ,शूल आदि को तिल -तिल काट डाला । फिर भी वह नही माना जब रुक्मिणी जी ने देखा की अब तो मेरे भाई को मार ही डालना चाहते हैं तो वे श्री कृष्ण जी के चरणों में गिर कर बोली -हे देवताओं के आराध्य !जगत्पते !योगेश्वर आप परम बलवान हैं और कल्याण स्वरूप भी ,प्रभो मेरे भी को मारना आपके योग्य काम नही है ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं -रुक्मिणी जी भय के कारण थर -थर काँप रही थी उनको देख कर भगवान् करुना से द्रवित हो गए ,रुक्मी को छोड़ दिया ,पर रुक्मी अब भी अनिष्ट की चेष्टा करता रहा । भगवान् ने उसी के दुपट्टे से उसे बाँध कर उसकी दाढी -मूंछ और केशों को मुंड कर छोड़ दिया ,पर बलराम जी ने उसका बंधन खोल दिया और श्री कृष्ण से बोले यह ब्यवहार उचित नही है । रुक्मी का तेज नष्ट हो चुका था वह अपनी प्रतिज्ञा अनुसार अपनी राजधानी भी नही गया वही पर 'भोज कट "नाम की एक बहुत बड़ी नगरी बसाई और क्रोध वश वही रहने लगा ।

भगवान् रुक्मिणी जी को लेकर बलराम और सेना के साथ द्वारिका आए । विधि पूर्वक रुक्मिणी जी के साथ भगवान् का विवाह हुआ । घर घर उत्सव मनाया जाने लगा अनेक नर पति आमंत्रित किए गए द्वरिका नगरी को दुल्हन की तरह सजाया गया केले और सुपारी के पौधे रोपे गए । कुरु ,कैकेय ,विदर्भ ,यदु और कुंती के वंशो के लोग आनंद मन रहे थे रुक्मिणी हरण और विवाह की गाथा के गीत गाए गए । नगर वासी परमानन्द में डूबे थे । "ॐ तत्सत् "

स्कन्ध -१० /अध्याय -६५

श्री शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित !श्री बलराम जी के मन में नन्द -यशोदा और व्रजवासियों से मिलने की बड़ी इक्षा थी वे व्रज आए माँ बाबा से मिले नन्द ने प्रेमाश्रुओं से भिगो दिया । गोप गोपियों से मिले खूब हस कर मीठी बातें की इन ग्वालो ने कृष्ण के वियोग में समस्त भोगो को त्याग दिया था वे बार -बार बलराम से कृष्ण के बारे में पूछते -अब तो वे बाल बच्चे वाले हो गए हैं क्या उनको हमारी याद आती है ?आप दोनों ने पापी कंस को मार डाला यह बड़े सौभाग्य की बात है । हमारे सखा तो अब किले में रहते हैं । बलराम जी के दर्शन कर गोपियाँ निहाल हो गई वे पूछ रहीं हैं -हमारे प्राण सखा कुशल से हैं न ?क्या वे अपनी माँ के दर्शन को आयेंगे ?उनको कभी हमारी याद आती है ?हम चाहतीं तो उनको रोक लेतीं पर जब वे कहते हम तो तुम्हारे हैं ,तुम्हारे उपकार का बदला हम नही चुका सकते तब ऐसी कौन स्त्री है जो उनको रोकती ;पर वे हमें छोड़ गए । एक गोपी बोली -हम तो गाव की गंवार हैं जो उनकी मीठी बातों में आगयी ,पर नगर की स्रियाँ भी उनकी मोहक मुस्कान और प्रेम भरी चितवन पर अपने प्राण न्योछावर करती होंगी । दूसरी गोपी बोली - अ रे सखी वह बड़ा निष्ठुर है ,हमारा जीवन अब विरह में ही कटेगा । इस प्रकार श्री कृष्ण के ध्यान में गोपियाँ तन्मय हो कर रोने लगी ।

परीक्षित !बलराम भी बातें करने में निपूर्ण वे गोपियों को मन भावन लुभावना संदेश श्री कृष्ण कीतरफ से दे रहे थे और कृष्ण प्रेम में वृद्धी कर रहे थे । वे दो मॉस व्रज में रहे ।

यमुना का तट शीतल और सुगंध भरी वायु ,पूर्णिमा की रात्री बलराम गोपियों संग विहार कर रहे हैं आनंदित है गले में वैजयंती की माला ,कानो में कुंडल चमक रहा है । बलराम जी ने जल क्रीडा करने के लिए यमुना जी को पुकारा ,वे नही आई तब बलराम जी ने क्रोध से अपने हल की नोक से उनको खीचा बोले तू मेरा तिरस्कार कर रही है मैं तेरे सौ टुकड़े कर देता हूँ । यमुना जी भयभीत हो कर बलराम के चरणों में गिर पड़ी बोली -हे महाबाहो मैं आपके पराक्रम को जान गई ,आप शेष जी के अंश से सारे जगत को धारण करते हैं ,भगवन् !आप परम ऐश्वार्यशाली हैं अनजाने में मुझसे अपराध हुआ मुझे क्षमा कर दे ,मैं आपकी शरण में हूँ । यमुना जी की प्रार्थना से बलराम खुश हो गये । गोपियों के साथ जल विहार करके जब वे बाहर आए तो लक्ष्मी जी ने उनको सुंदर आभूषण उपहार में दिया । यमुना जी आज भी बलराम जी के खिचे हुए मार्ग से बहतीं हैं । ॐ तत्सत् !

स्कन्ध-१० /अध्याय- ७८

श्री शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित !श्री कृष्ण ने बहुत से अत्त्याचारी राजाओं का वध किया जो किसी और से नही हो सकता । शिशुपाल ,शाल्व ,पौन्द्र को मारा तो दन्तवक्त्र युद्ध भूमि में आया बोला -कृष्ण मैं तुम्हे मारना नही चाहता तुम मेरे मामा के लड़के हो पर तुम मुझे मारना चाहते हो इसलिए मैं तुमको मारूंगा वह घमंड में चूर भगवान् पर गदा से वार किया प्रभु तनिक न हिले ,अपनी कौमोदकी गदा से उसके वक्षस्थल पर प्रहार किया ,दन्तवक्त्र खून की उल्टियाँ करता गिरा मरगया ,अब उसका भाई विदुरथ आया भगवान् ने किरीट सहित उसका सिर चक्र से काट दिया । तब भगवान् ने द्वारिका में प्रवेश किया । भगवान् के स्वागत में द्वारिका खूब सजी थी । देवता पुष्प वर्ष कर रहे थे सिद्ध ,गंधर्व ,यक्ष किन्नर उनका जय गान कर रहे थे चहुँ ओर आनंद छाया था ।

एकबार बलराम जी ने सुना की कौरव और पांडव युद्ध की तैयारी कर रहे हैं तो वे तीर्थ के बहाने द्वारिका से चले गए वे किसी का पक्ष लेना नही चाहते थे । पहले वे प्रभास क्षेत्र में गए ,स्नान ,दान और तर्पण किया फिरर वे पृथूदक ,विन्दुसर सुदर्शन ,विशाल ,ब्रम्हा तीर्थ ,चक्र तीर्थ से नै मिशारन्य गये वहा दीर्घ कालिक सत्संग चल रहा था , बलराम जी के पहुँचने पर संतो ने उनका स्वागत किया पर व्यास के शिष्य रोमहर्षण व्यास पीठ से नही उठे यह देख कर बलराम को क्रोध आया बोले यह सूत जाती का है इसलिए यह व्यास पीठ पर नही बैठ सकता दूसरे यह विनयी नही है ,यह धर्म का स्वांग रचता है ,संयमी नही है यह मृत्यु का पात्र है । इतना कह कर कुश की नोक से उन पर प्रहार किया वे तुंरत मर गए । अब ऋषियों में हाहाकार मच गया बोले -हमने ही सूत जी को व्यास गद्दी पर बिठाया था ,प्रभु आपने अधर्म किया ।

बलराम जी बोले -मैं लोक शिक्षा के लिए इस ब्रम्ह हत्या का प्रायश्चित करूँगा आप विधान बताये । रोमहर्षण के स्थान पर उनके पुत्र को व्यास गद्दी पर नियुक्त किया । बलराम जी ने अपनी शक्ति से उसे दीर्घ आयु और बल दिया ऋषियों से कहा आपकी कोई कामना हो तो बताइये ऋषियों ने कहा वल्वल नाम का एक राक्षस जो यग्य शाला को दूषित कर देता है मांस मदिरा ,विष्ठा और खून की वर्ष करता है हम सब दुखी है । बलराम जी ने वल्वल को मार डाला ऋषि प्रसन्न हुए । वहां से चलकर बलराम जी भारत वर्ष के सभी तीर्थ क्षेत्रों का भ्रमण किया । ॐ तत्सत् !

स्कन्ध-१० /अध्याय-८७

राजा परीक्षित ने पूछा -भगवान् !जिसे ब्रम्ह कहते हैं ,जो कार्य और कारण से परे है ,मन वाणी से परे है ,निर्गुण है तो श्रुतियां उसका गुणगान कैसे करतीं हैं ?क्योकी निर्गुण वस्तु का स्वरूप नही होता ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित !सर्वशक्तिमान भगवान् जो गुणों की खान हैं ,विचार करने पर तात्पर्य निर्गुण ही निकलता है मन, बुद्धि ,इन्द्रिय ,प्राण इनका कोई स्वरुप नही है पर इनके द्बारा हम धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष की प्राप्ति करते हैं । एक बार यही प्रश्न देवर्षि नारद ने भगवान् नारायण से पूछा था जब वे मानव कल्याण के लिए बदरिका आश्रम में तपस्या कर रहे थे ।ऋषियों की सभा में नारायण ने कहा- प्राचीन काल की बात है ब्रम्हा के मानस पुत्र सनक ,सनंदन ,सनातन और सनत्कुमार ने उस ब्रम्ह की चर्चा की जिसका वर्णन श्रुतियां भी नही कर पाती उसी में सो जाती हैं । नारद उस समय तुम श्वेत दीप गये थे मेरी अनिरुद्ध मूर्ति का दर्शन करने । उस ब्रम्ह चर्चा में सनक ,सनातन और सनत्कुमार श्रोता बने सनंदन वक्ता ।

सनंदन जी बोले -जिस प्रकार प्रात:काल सोते हुए सम्राट को जगाने के लिए बंदीजन उनके सुयश का गान करते हैं उसी प्रकार श्रुतियां उनका प्रतिपादन करने वाले वचनों से प्रभु को जगाती हैं ।

श्रुतियां कहती हैं -हे अजित !आप सर्व श्रेष्ठ हैं ,अजेय हैं ,आप पूर्ण ऐश्वर्य शाली हैं । हम प्राणियों को फ़साने वाली माया का आप नाश कर दीजिये । प्रभु इसे केवल आप ही मिटा सकते हैं । भगवान् जब आप स्वरुप में होते हैं तभी हम आपके गुणों का रंच मात्र वर्णन करने में समर्थ होते हैं । प्रभु जब सबकुछ विलीन हो जाता हैं तब भी आप होते हो साक्षी रूप में और आपसे ही फ़िर जगत की रचना होती है । हे अनंत हम कही भी पैर रखे ईट पर ,काठ पर होग तो पृथ्वी पर ही क्योंकि वह पृथ्वी का ही रूप है । विवेकी पुरूष आपके गुणों के सागर में गोटा लगा कर अपने पाप -ताप ,राग -द्वेष ,रोग -शोक को बहा देते हैं और अपना जीवन सफल कर लेते हैं । भगवान् मनुष्य के पाँच कोष -अन्नमय ,मनोमय , प्राणमय ,आनंदमय और विज्ञानमय सब आपकी शक्ति से हैं यही एक मात्र सत्य है । स्थूल दृष्टि से मणिपुर चक्र में अग्नि रूप से उपासना होती है ,ह्रदय जो सब नाडी यों का केन्द्र है ,इसमे सुषुम्ना नाडी जो ह्रदय से ब्रम्हरन्ध्र तक गई है । ह्रदय में जो आपके स्वरूप को धारण करता है वह ज्योतिर्मय मार्ग को प्राप्त करता है .सदैव ऊपर की ओर बढ़ता है ।

श्रुतियां कहतीं हैं उत्तम -अधम ,छोटा -बड़ा सब में सम भावः रखना चाहिए । परम तत्त्व का ज्ञान कराने के लिए प्रभु अवतार लेते हैं उनकी मादक ,मधुर लीला कथाये मोक्ष से बढ़ कर हैं मानव जीवन पाकर जो आपको नही भजता उसके लिए यह संसार भयावह है आपका घोर शत्रु भी नाम लेकर पार हो जाता है जो आप से प्रेम सम्बन्ध जोड़ लेता है वह दूसरों को भी पावन कर देता है । देवताओं के पूज्य ब्रम्हा जी आपकी माया के आधीन हैं ।

जो लोग देह ,गह ,स्त्री ,पुत्र ,धन ,महल आदि के सुखों में रमे रहते हैं उन्हें इस संसार में सुख नही मिलता इसके विपरीत जो समस्त भोगों के बीच रहकर भी ह्रदय में आपको धारण वह सौभाग्यवान होता है । आपको भजने वाला सबका प्रिय बन जाता है । प्रभु !आपका ऐश्वर्य ,धर्म ,यश ,श्री ,ज्ञान ,बल ,वैराग्य अपरिमित है और देश तथा काल की सीमा से परे है । इस संसार के ब्यापार में बुद्धी तो बेचारी बन कर रह जाती है ।

जो सर्वग्य ,सर्वशक्ति और नृसिंह पुरुषोत्तम है उन्ही सर्वसोंदर्य -माधुर्य निधि प्रभु का मैं मन ही मन आश्रय ग्रहण करता हूँ -ऐसा श्रुतियां कहतीं हैं

नारायण जी ने कहा -देवर्षि !तुम भी ब्रम्हा के मानस पुत्र हो सनकादी ऋषियों ने जो बताया उसे धारण करो यह विद्या मनुष्य की समस्त वासनाओ को भस्म कर देगी । शुकदेव जी परीक्षित से कहते हैं -नारद जी संयमी ,ग्यानी ,पूर्णकाम और ब्रम्हचारी हैं वे जो सुनते है धारण कर लेते हैं ।

नारद जी कहते हैं -भगवान् !आप सच्चिदानंद स्वरुप श्री कृष्ण हैं । परम पवित्र कीर्ति वाले हैं मैं आपको नमस्कार करता हूँ । आप धर्म को स्थापित करने और मनुष्य का कल्याण करने के लिए अवतार लेते हैं ।

शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित !नारद जी भगवान् को प्रणाम करके मेरे पिता श्री कृष्ण द्वेपायन के आश्रम पर गए वेदव्यास ने उनका यथोचित सत्कार किया । आसन ग्रहण कर नारद जी ने जो कुछ भगवान् के मुख से सुना वो सब मेरे पिता जी को सुना दिया और पिता के मुख से मैंने सुना और तुम्हे बता दिया की -मन -वाणी से अगोचर ,प्राकृत गुणों से रहित परब्रम्ह ,परमात्मा का वर्णन श्रुतियां किस प्रकार करती हैं और उसमे मनका कैसे प्रवेश होता है । ॐ तत्सत् !

स्कन्ध-११/अध्याय -९

अवधूत दत्तात्रेय जी ने कहा -राजन !मानुषों को जो वस्तु प्रिय लगती है वह उनको पाने की चेष्टा में रहता है और वही उनके दुक्ख का कारण बनती हैं । बुद्धिमान पुरूष इस सत्य को समझ कर मन से शरीर से परमात्मा को याद करता है । दत्तात्रेय कहते हैं -एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकडा लिए था ,दूसरे बलवान पक्षी उसे पाने के लिए उसे चोंच मार रहे थे पक्षी ने मांस का टुकडा फेक दिया सब भाग गए कुरर को सुख मिल गया ।

अवधूत जी ने देखा एक बालक -जिसे मान अपमान का ध्यान नही सुख -दुक्ख की चिंता नही वह अपनी ही आत्मा में रमता है बड़े मौज से रहता है । इस जगत में दो ही लोग मौज से रहते है ,आनंद में रहते है एक तो बालक दूसरे गुनातीत पुरूष ।

अवधूत जी ने एक कन्या से सीखा की अकेले ही विचरण करना चाहिए -एक कन्या के घर कुछ अतिथि आए ,घर के लोग बाहर गए थे इसलिए कन्या को ही उनका सत्कार करना पड़ा । वह भोजन के लिए धान कूटने लगी उसकी कलाई की चूड़ीयां बजने लगी उसकी आवाज उन अतिथियों तक जाती जो मर्यादा के ख़िलाफ़ होती उसने दो -दो चूडियों को छोड़ सब तोड़ दिया पर वे भी बजने लगीं तो उसने एक छोड़ कर एक तोड़ दी तो आवाज बंद हो गई । मैंने उससे यह सीखा की ज्यादा लोग होते हैं तो कलह होती है दो होते हैं तो भी बात तो होती ही है इस लिए अकेले रहना चाहिए ।

बहेलिया से सीखा की -वह वान् बनाने में इतना तन्मय हो गया की उसके पास से दल -बल के साथ राजा की सवारी निकल गई उसे पता नही चला इसी प्रकार आसन और स्वास को जीत कर मन को वश में करके लक्ष्य में लगा दो जब यह मन परमात्मा में लग जाता है तो विषय रूपी धूल ख़तम हो जाती है जैसे ईधन के बिना अग्नी स्वत:शांत हो जाती है उसी तरह मन शांत हो जाता है ।

सांप से सीख -संन्यासी को मठ ,मंडली नही बनानी चाहिए किसी गुफा ,कन्दरा में जीवन बिताना ,कम बोलना ,प्रमाद न करना ।

मकडी -मैंने देखा वह बिना किसी सहायता के अपने मुख से जाल बनाती है ,विचरती है उसमे फ़िर जब चाहे निगल लेती है । भगवान् ने इसी प्रकार पूर्व कल्प में बिना किसी सहायता के अपनी माया से जगत की रचना की और जब चाहा अपने में लीन कर लिया शून्य रूप में वे अकेले ही शेष रहे ।

दीमक को मैंने देखा -वह दीवार में अपने रहने की जगह को बंद कर देता है इस प्रकार शरीर त्याग से पहले ही उसी चिंतन में बंद हो जाता है ।

अवधूत जी कहते हैं -राजन अपनी शरीर से क्या सीखा वह भी तुम्हे बताता हूँ ,यह मुझे विवेक ,बुद्धि ,विचार और वैराग्य की शिक्षा देता है । आयु पूरी होने पर यह नष्ट हो जाता है पर इससे चारो पुरुषार्थ -धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है मनुष्य शरीर दुर्लभ है ब्रम्हा ने मनुष्य को बुद्धि से युक्त बनाया इसकी रचना करके वे आनंदित हुए । राजन् मेरे ह्रदय में परमज्योति जलती रहती है मुझे जगत से वैराग्य हो गया है । ज्ञान और बुद्धि से सब कुछ पाया जा सकता है भगवान् भी ।

श्री कृष्ण ने कहा -प्रिय उद्धव !दत्तात्रेय ने मेरे पूर्वज राजा यदु को यह उपदेश दिया । यदु ने उनकी पूजा की वे प्रसन्न होकर पधार गए ,राजा आसक्तियों से छुट्कारा पा गए । ॐ तत्सत् !

स्कन्ध- 11/अध्याय- २१

भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं -प्रिय उद्धव मेरी प्राप्ति के तीन मार्ग हैं - भक्तियोग ,ज्ञानयोग और कर्मयोग । जो मनुष्य क्षुद्र भोग में पड़े रहते हैं उनके लिए यह संसार दुक्खो से भरा है । धर्म में निष्ठा मनुष्य का स्वाभाविक गुण है ,इसमे योग्य और अयोग्य का ठीक से विचार करके धर्म का सम्पादन करना चाहिए ताकि समाज का व्यवहार और व्यक्तिगत जीवन निर्वाह में कोई कठिनाई न हो । शास्त्र के अनुसार जीवन को चलाना चाहिए वासना के जाल मे नही उलझना चाहिए । धर्म में कपट ,ढोंग नही होता ।

निष्पाप उद्धव !यह आचार मैंने ही मनु रूप धारण करके धर्म की जड़ता को ख़तम करने के लिए दिया है । उद्धव सबका शरीर पञ्च भूतो से (पृथ्वी ,जल,तेज ,वायु और आकाश )बना है सभी प्राणियों की आत्मा एक है फ़िर भी वेदों ने इनके वर्णाश्रम इसलिए बना दिए की ये अपने वासना को नियंत्रित करके धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष को सिद्ध कर सके । साधुश्रेश्ठ !देश ,काल,फल ,निमित्त ,अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओं के गुन दोष का विधान इसलिए किया गया है की कर्म की मर्यादा भंग न हो वह देश अपवित्र है जहाँ कृष्णसार मृग न हो ,जहाँ के निवासी ब्राम्हण भक्त न हो ,जहाँ संत न हो । समय वही पवित्र है जिसमे कर्म करने योग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म हो सके आगन्तुक दोषों से या अन्य दोषों के कारण जब कर्म न हो सके तो समझो वह समय अशुद्ध है । पदार्थों की शुद्धि जैसे -पात्र ,शरीर ,स्थान ,वस्त्र आदि जल से शुद्ध होते हैं किसी वस्तु की शुद्धि में शंका होने पर ,ब्राम्हणों के वचन से वह शुद्ध हो जाती है । पुष्प सूँघने से अशुद्ध हो जाता है । तुरत का बना भोजन शुद्ध होता है । शक्ति ,अशक्ति ,बुद्धि वैभव के अनुसार भी पवित्र और अपवित्र की व्यवस्था होती है स्नान ,दान ,तप ,संस्कार और मेरे स्मरण से चित्त की शुद्धि होती है । उद्धव जी !इस प्रकार देश ,काल ,पदार्थ ,करता ,मन्त्र और कर्म के शुद्ध होने से धर्म और अशुद्ध होने से अधर्म होता है । उद्धव ! एक ही वस्तु किसी के लिए ठीक और किसी के लिए त्याज्य है जैसे -ब्राम्हण दूध का व्यापार करे तो अधर्म है ,श्रेष्ठ अगर गलत आचरण करे तो दोष ,संन्यासी अगर स्त्री संग करे तो पाप है । बात यह है की जो नीचे सोया है वह गिरेगा कहाँ ?जो पहले से पतित है उसका क्या पतन होगा ।उद्धव जी !मोह किसी वस्तु से है तो उसे पास रखने की कामना होती है बाधा पड़ने पर कलह होती है फ़िर क्रोध आता है अत्यधिक क्रोध में हित -अहित का बोध नही रहता मनुष्य पशु बन जाता है । अज्ञान छ जाता है और चेतना लुप्त हो जाती है कुछ नही बचता । विषयासक्ति आत्मोन्नति में बाधक है जो लोग इन्द्रियों की तृप्ति के लिए भजन का ढोंग करते हैं वे मुझे नही जान पाते ।

उद्धव जी !वेद शब्द ब्रम्ह है वे मेरी मूर्ती हैं इसलिए उनका रहस्य समझना कठिन है वह पारा ,पश्यन्ति और माध्यम के रूप में प्राण ,मन और इन्द्रिय है ,यह अथाह है । जैमिनी आदि बड़े मुनि भी नही समझ पाते मैं अनंत शक्ति संपन्न ,पर ब्रम्ह हूँ ,मैंने ही वेदों का विस्तार किया है सभी श्रुतियां कर्मकांड में मेरा ही विधान करती है और अंत में मुझमे ही समां जातीं हैं अधिष्ठान रूप में मैं ही शेष रहता हूँ । ॐ तत्सत्!

स्कन्ध -१२ /अध्याय -२

इस अध्याय में कलियुग में होने वाले कर्मो का विवरण है आज से कई हजार वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था की कलियुग कैसा होगा और आज वही देखने को मिल रहा है

श्री शुकदेव जी कहते है -परीक्षित !ज्यों -ज्यों कलियुग आएगा त्यों -त्यों धीरे -धीरे धर्म ,कर्म ,सत्य ,पवित्रता ,क्षमा दया ,आयु बल और स्मरण शक्ती का लोप होता जायगा । कलियुग में जिसके पास धन होगा उसी को लोग कुलीन और सदाचारी मानेगे जिसके हाथ में शक्ति होगी वह न्याय और धर्म की व्यवस्था अपने अनुकूल कराने में सक्षम होगा । सत्य और ईमान को सिद्ध करना होगा जो जितना छल कपट कर सकेगा वह उतना ही व्यवहार कुशल माना जायगा ब्राम्हण की पहचान उसके गुन व् स्वभाव से नही यज्ञोपवीत से होगी । संन्यासी गेरुआ वस्त्र ,दंड और कमंडल से पहचाने जायगे । जो घुस नही देगा उसे अदालत में न्याय नही मिल सकेगा जो बोल चाल में धूर्त और चालक होगा वह पंडित और बुद्धिमान माना जायगा ।

गरीब होना असाधुता होगी पाखंडी पंडित बनेगे शास्त्रीय विधि विधान और संस्कार की आवश्यकता नही समझी जायगी । दूर के तालाब को तीर्थ और पास के तीर्थ की उपेक्षा होगी । जो जितनी ढिठाई से बात करेगा उसे उतना ही सच माना जायगा । धर्म का सेवन लोग यश प्राप्त करने के लिए करेंगे । राजा नीच ,निर्दई और लोभी होगा ,प्रजा में भय व्याप्त रहेगा । प्रकृति अपना संतुलन नही रख पाएगी । मनुष्य रोगी होगा ,नाना प्रकार के कुकर्म करेगा ,अपराध करेगा । संन्यासी में वैराग्य नही रहेगा वह गृहस्थों की तरह साधन जुटाएगा और उन्हें की तरह व्यापर करेगा । धान ,गेहू ,यव के पौधे छोटे होंगे तथा उपज कम होगी ।

परीक्षित !कलि युग के अंत में मनुष्य का व्यवहार दुसह बन जायगा .ऐसी स्थिति में भगवान् अवतार ग्रहण करेंगे। प्रिय परीक्षित !सज्जन पुरुषों की रक्षा और धर्म की स्थापना के लिए भगवान् अवतार लेते हैं । सर्वशक्तिमान प्रभु कलियुग में शंभल ग्राम में विष्णुयश नाम के एक ब्राम्हण होगे जो भगवत भक्ति से परिपूर्ण होंगे उनके घर "कल्कि"भगवान् अवतार ग्रहण करेंगे वे देवदत्त नामक शीघ्रगामी घोडे पर सवार हो कर पूरी पृथ्वी का विचरण करेंगे और कोटी-कोटी दुष्टों को मारेंगे । प्रजा फ़िर से पवित्र आचरण करेगी और उसकी संतान बलवान और दीर्घायु होगी उस समय सत्य युग का प्रारम्भ होगा ,भगवान् वासुदेव फ़िर सबके ह्रदय में वास करेंगे ।

जिस समय चंद्रमा ,सूर्य और ब्रिह्श्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्र के प्रथम पल में प्रवेश करते हैं ,एक राशि पर आते हैं उसी समय सत्य युग का प्रारम्भ होता है ।

सर्वशक्तिमान भगवन श्री कृष्ण जब अपनी लीला का संवरण कर परम धाम पधारे उसी समय कलियुग ने इस संसार में प्रवेश किया । इसी कारण मनुष्य की गति -मति दोनों पाप की हो गई जब तक लक्ष्मी पति भगवान् विष्णु अपने चरण कमलो से पृथ्वी का स्पर्श करते रहे तब तक कलियुग इस पृथ्वी पर अपने रहने के स्थान की खोज में भटकता रहा । अपना पैर न जमा सका । जा सप्तर्षि मघा नक्षत्र पर विचरण करते हैं उसी समय कलि का प्रारम्भ होता है । कलियुग की आयु मनुष्य गणना के अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का है ।

प्रिय परीक्षित !जो नर पति अपने बल पौरुष से पृथ्वी को जीता और राज किया अब केवल उनकी कहानियाँ ही शेष रह गई हैं । इसलिए किसी को सताना अपने नर्क का द्वार खोलना है । ॐ तत्सत् !

स्कन्ध -१२/अध्याय -१३

श्री शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित !जब पृथ्वी देखती है की ये राजा लोग मुझे जीतना चाहते है ,मुझ पर राज करना चाहते है ,तो वह हंसती है । राजा जब एक द्वीप पर विजय पा लेता है तो वह दूसरे द्वीप पर विजय पाने के लिए अधिक शक्ति और उत्साह के साथ आक्रमण करते है सोचते है धीरे -धीरे क्रम से यह सारी पृथ्वी मेरे हो जायगी मैं उस पर राज करूँगा उन्हें यह ध्यान नही रहता की सिर पर काल सवार है ।

परीक्षित !पृथ्वी कहती है की ये बड़े -बड़े वीर मुझे ज्यों की त्यों छोड़ कर जहाँ से आए थे खाली हाथ वही लौट गए मुझे साथ न ले जा सके । ये मूर्ख राजा जब यह जान लेते हैं की यह पृथ्वी मेरी है तो उनके राज में "मेरे लिए " उनके भाई ,बंधू ,पिता ,पुत्र सब आपस में लड़ने लगते हैं और कहते हैं मेरी है ,मेरी है लड़ते हुए मर जाते हैं । परीक्षित !लोक में अपने यश का विस्तार करना चाहिए । तुममे ज्ञान पूर्ण वैराग्य आए इसलिए यह कथा सुनाई है यह वाणी विलास है । भगवान् श्री कृष्ण का गुणानुवाद और उनके चरणों में अनन्य प्रेम ही सत्य है ।

परीक्षित श्री शुकदेव जी से पूछते हैं -भगवन !कलियुग तो दोषों का खजाना है लोग किस उपाय से दोषों का नाश कर सकेंगे । श्री शुक देव जी ने कहा -परीक्षित !सतयुग में धर्म के चार चरण होते है ,सत्य ,दया ,दान और तप । सत्य युग में लोग बड़े संतोषी और दयालु होते है शांत रहते है और सबसे मित्रवत व्यवहार करते है । निष्ठा के साथ धर्म का पालन करते है ,धर्म स्वयं भगवान् का स्वरूप है ।

परीक्षित !जिस तरह धर्म के चार चरण होते है उसी तरह अधर्म के भी चार चरण है -असत्य ,हिंसा ,असंतोष और कलह । त्रेतायुग में इनके प्रभाव से धीरे -धीरे धर्म के चारो चरणों का चतुर्थांश क्षीण हो गया । ब्राम्हणों की प्रधानता घटी हिंसा बढ़ी लोग सत्य को छोड़ कर अर्थ ,धर्म और काम को मानने लगे ।

द्वापरयुग में -हिंसा .असंतोष ,झूठ ,द्वेष आदि की वृद्धि हुई .तप ,सत्य ,दया और दान आधा हो जाता है ,कुटुंब बड़े होगे लोग कर्म कांडी होगे । उस समय ब्राम्हण और क्षत्रिय दो वर्णों की प्रधानता होगी ।

कलियुग में -असत्य ,हिंसा ,असंतोष और कलह बढ़ जाता है ,अधर्म बढ़ता है धीरे -धीरे धर्म क्षीण हो जाता है ,धर्म का चतुर्थांश ही बचता है लोग लोभी ,दुराचारी और झूठे होते है ।

सभी प्राणियों में तीन गुण होते है -सत्व ,राज और तम् । काल की प्रेरणा से समय -समय पर शरीर ,प्राण और मन में उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है । जिस समय मन ,बुद्धी और इन्द्रियां सत्वगुणी होकर कार्य कर रही हो उस समय सतयुग समझना चाहिए । जब सत्वगुण प्रधान होता तो मनुष्य ज्ञान और तप से अधिक प्रेम करता है । (इस तरह हम आज भी सतयुग में जी सकते है )जिस समय मानव प्रवृत्ति अर्थ ,काम और सुख चाहता समझना चाहिए वह त्रेतायुग में है । जब लोभ ,असंतोष ,अभिमान ,दंभ का बोलबाला हो तो समझो अब द्वापरयुग में हो ,रजोगुण और तमोगुण का मिश्रण ही द्वापरयुग है । कलियुग वह है जब झूठ ,कपट ,हिंसा ,विवाद ,शोक ,भय ,आलस्य की प्रधानता हो । जो समय तमोगुण प्रधान होगा वह क्षुद्र दृष्टी वाला होगा ।

परीक्षित !अधिकाँश लोग होते तो निर्धन है पर खाते बहुत हैं ,भाग्य बहुत मंद होता है पर बातें और कामनाये बहुत बड़ी -बड़ी होती हैं । कलियुग की स्त्रियाँ कलह प्रिय होगी ,कुलटा और मर्यादा को भंग करने वाली होंगी ,उनके संताने बहुत होंगी ,कद में छोटी होंगी पर भूख ज्यादा होगी ,दुस्साहसी होंगी ।

कलियुग में लुटेरों की संख्या अधिक होगी पाखंडी लोग वेदों का तात्पर्य मनमाने ढंग से करेंगे । गृहस्थ संन्यासी का अपमान करेगा ,संन्यासी लोभी और धन सग्रह में रहेगा । सेवक अपने स्वामी को धोखा देगा । प्रेम का अर्थ केवल वासना तृप्ति तक होगा । शुद्र तपस्वी का वेश धारण करके पेट पालेगा ,अज्ञानी सिंघासन पर बैठ कर धर्म का उपदेश करेगा ।

प्रिय परीक्षित !कलियुग में तो वस्त्र ,रोटी और दो हाथ जमीं से भी वंचित होंगे लोग । रिश्तों की उपेक्षा होगी । पाखंडियों के कारण लोग धर्म से भी विमुख हो जायगे क्योकि ये लोग चित्त को भ्रमित कर देते हैं और लोग धर्म का मजाक बना लेते हैं । पाखंडियों के कारण ही धर्म अशुद्ध होगा ।

परीक्षित !कलियुग में अनेक दोष हैं पर एक बड़ा गुण भी है इस युग में ,जाने -अनजाने जो भी नाम जप करेगा वो प्रभु का प्रिय होगा । सब दोषों का मूल स्रोत अन्तः करण में जब भगवान् विराजते हैं तो सब दोष नष्ट हो जाते हैं ,हजारों जन्मो के पाप क्षण में भस्म हो जाते हैं ,ह्रदय में स्थित भगवान् विष्णु अशुभ संस्कारों को सदा के लिए मिटा देते हैं । हर प्रकार की शुद्धि का एक ही उपाय है भगवान् की सेवा ।

श्री शुक देव जी कहते हैं परीक्षित ! अब तुम्हारी मृत्यु का समय निकट आ गया है ,अब सावधान हो जाओ पूरी शक्ति से अन्तः करण की सारी वृत्तियों से भगवान् श्री कृष्ण को अपने ह्रदय सिंघासन पर बिठाओ तुम्हे अवश्य ही परम गति की प्राप्ती होगी । सर्वात्मा भगवान अपना ध्यान करने वाले को अपने स्वरूप में मिला लेते हैं । कलियुग दोषयुक्त होकर भी एक गुण से युक्त है की -भगवान् श्री कृष्ण का संकीर्तन करने मात्र से ही आसक्तियां छूट जातीं हैं और परमात्मा की प्राप्ति होती है ,फ़िर पूजा ,आराधना ,सेवा के फल का तो कहना ही क्या । ॐ तत्सत् !

हमने अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार भगवान् का गुणगान किया ।" भगवत् से "लिया हुआ यह तीस अध्याय समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है । हे परम परमेश्वर इस यात्रा में सफल होने का जो संकल्प मैंने लिया है वो तेरी कृपा से पूर्ण हो इसलिए निवेदन है -ॐ सर्वेश्वरेश्वराय ,सर्वविघ्न विनाशिने मधु सूदनाय स्वाहा !

हम रुक्मनिजी के उस पत्र का वर्णन करेंगे जो उन्होंने अपने महल के एक ब्राम्हण के द्बारा श्री कृष्ण जी को भेजा था यह सात श्लोकों में है इसमे भगवान् के गुणों का वर्णन है जो रुकमनी जी ने सुना है ,प्रभु के गुणों को सुनकर रुकमनी जी उनसे प्रेम करने लगी और प्रन किया की -श्री कृष्ण ही मेरे पति होंगे ।

रुक्मिणी जी का पत्र सात श्लोकों में है -१

-त्रिभुअनसुंदर !आपके गुणों को ,जो सुनने वालो के कानो के रास्ते ह्रदय में प्रवेश करके एक -एक अंग के ताप ,जन्म -जन्म की जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप सोंदर्य को ,जो नेत्र वाले जीवो के नेत्रों के लिए धर्म ,अर्थ ,काम ,मोक्ष -चारों पुरुषार्थों का फल एवं स्वार्थ -परमार्थ ,सब कुछ है ,श्रवण करके प्यारे अच्युत !मेरा चित्त लज्जा ,शर्म सब कुछ छोड़ कर आपमें ही प्रवेश कर रहा है ।

2-प्रेमस्वरूप श्यामसुंदर !चाहे जिस दृष्टि से देखे ;कुल ,शील ,स्वभाव ,सोंदर्य ,विद्या ,अवस्था ,धन -धाम सभी में आप अद्वितीय हैं ,अपने ही समान है । मनुष्य लोक में जितने भी प्राणी है सबका मन आपको देख कर शान्ति का अनुभव करता है ,आनंदित होता है अब पुरूष भूषण !आप ही बताइये -ऐसी कौन सी कुलवती ,महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी ,जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति के रूप में वरण न करेगी ।

३-इसलिए प्रियतम !मैंने आपको पति रूप से वरण किया है । मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ । आप अन्तर्यामी हैं । मरे ह्रदय की बात आपसे छिपी नही है । आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये । कमल नयन !प्राण वल्लभ !मैं आप सरीखे वीर को समर्पित हो चुकी हूँ ,आपकी हूँ । अब जैसे सिंह का भाग सियार छू जाय ,वैसे कहीं शिशुपाल निकट से आकर मेरा स्पर्श न कर जाय ।

४-मैंने यदि जन्म -जन्म में पूर्त (कुआ ,वावली ),इष्ट दान ,नियम ,व्रत तथा देवता ,ब्राम्हण और गुरु आदि की पूजा के द्बारा भगवान् परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझ पर प्रसन्न हो तो भगवान् श्री कृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें ;शिशु पाल अथवा दूसरा कोई भी पुरूष मेरा स्पर्श न कर सके ।

५-प्रभो !आप अजित हैं । जिस दिन मेरा विवाह होने वाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानी में गुप्त रूप से आ जाइये और फ़िर बड़े -बड़े सेनापतियों के साथ शिशुपाल तथा जरासंध की सेनाओं को मथ डालिए ,तहस -नहस कर दीजिये और बल पूर्वक राक्षस विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये ।

६ -यदि आप यह सोचते हो की -तुम तो अन्तः पुर में -भीतर के जानने महलों में पहरे के अन्दर रहती हो ,तुम्हारे भाई -बंधुओं को मरे बिना मैं तुम्हे कैसे ले जा सकता हूँ । तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ । हमारे कुल का ऐसा नियम है की विवाह के पहले दिन कुलदेवी का दर्शन करने के लिए एक बहुत बड़ी यात्रा होती है ,जलूस निकलता है -जिसमे विवाही जाने वाली कन्या को ,दुल्हन को नगर के बाहर गिरिजा देवी के मन्दिर में जाना पड़ता है

७ -कमलनयन !उमापति भगवान् शंकर के समान बड़े -बड़े महापुरुष भी आत्म शुद्धी के लिए आपके चरण कमलों की धुल से स्नान करना चाहतें हैं । यदि मैं आपका वह प्रसाद ,आपकी चरण धूल नही प्राप्त कर सकी तो व्रत द्वारा शरीर को सुखाकर प्राण छोड़ दूंगी । चाहे उसके लिए सैकड़ों जन्म क्यों न लेना पड़े ,कभी न कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य मिलेगा ।

यह सात श्लोक हर प्रकार से हमारे गृहस्थ जीवन को सुखमय बना देता है इसका पाठ करना कुमारियों के लिए भी लाभ कारी होगा उन्हें उत्तम वर की प्राप्ति होगी और भगवान् का आशीर्वाद मिलेगा ।

हम भागवत से निकाल कर कुछ सूत्र लाये है जो जीवन को सुखी बनाने के लिए हैं -

आपकी कोई समस्या ऐसी हो जो सुलझ न रही हो और आप अपने को असमर्थ पा रहे हों तो -आप श्री विष्णु जी घी का दीपक दे पीत वस्त्र और पुष्प से पूजन करे उत्तम भोग अर्पित करें पूर्ण समर्पण के साथ । आचमन दे कर आसन दे नवीन वस्त्र का आसन अब तुलसी या रुद्राक्ष की माला से एक माला निम्न मन्त्र का जप करे जब तक समस्या ख़तम न हो आपकी कामना जरुर पूरी होगे यह गजेन्द्र मोक्ष से लिया गया मन्त्र है इसका तुरत प्रभाव होता है -ॐ नमो भगवते तस्मे यत एत्च्ची दात्म्कम ,पुरुषायादीवीजाय परेशायाभीधीमहि ।

यस्मिन्निद यात्श्चेदं येनेदं य इदं स्वयम ,योस्मात परस्माच्च परस्त्न प्रपद्ये स्वयं भुवम् ।

अर्थ -जो जगत के मूल कारण हैं और जो सबके ह्रदय में पुरूष के रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं ,जिनके कारण इस संसार में चेतनता का विस्तार होता है -उन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ,प्रेम से उनका ध्यान करता हूँ

यह संसार उन्ही में स्थित है उन्ही की सत्ता से प्रतीत हो रहा है वे ही इसमे व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं । यह सब होने पर भी वे इस संसार और इसके कारण -प्रकृति से सर्वथा परे हैं । उन स्वयंप्रकाश ,स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान् की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ।

०४/०४/२००९